इस शतक में पंच परमेष्ठि ,जिनशासन की महिमा एवं
जिनसिद्धांतो को समझाने का प्रयास किया गया है ।
यदि कोई भी भूल रही है तो ज्ञानी जन इसमें सुधार करे।
प्रारंभ करते है स्वर्ण शतक
।। 👑स्वर्ण शतक👑।।
छंद ( श्रंगार )
।। 👑स्वर्ण शतक👑।।
छंद ( श्रंगार )
नमन करूं मैं अरिहंतो को ।
नमन करूं मैं श्री सिद्धों को।।
नमन करूं मैं जिनवाणी को।
नमन करूं मैं जिनगुरुओं को ।।
अरे जिनवाणी जीवन है।
अरे जिनवाणी ही धन है।।
अरे यह ही है सच्ची वाणी ।
अरे यह जिनगुरूओ की धारी।।
अरे सर्वज्ञों की वाणी ।
ही तो सच्चा जीवन धन है।।
यही है हितकारी वाणी।
यही है सुखकारी वाणी ।।
अरे जिनवाणी ही सुख है।
अरे जिनवाणी ही धन है।।
अरे तुम जिनवाणी जानो।
अरे जिन गुरुओं को मानो।।
छंद - पद्धरि
सर्वज्ञाें को मैं नमन करूं ।
जिन गुरुओं का स्मरण करूं।।
जिनवाणी सच्ची साथी है।
उसका ही बस मैं मनन करूं ।। 1 ।।
पंच परम परमेष्ठि ही तो।
एक मात्र जग में है श्रेष्ठ।।
वह पंच परम परेमस्थी ही तो ।
पूरे जग में सर्वश्रेष्ठ।।2।।
हमको उन जैसा बनना है ।
हमको सहज ही बनना है।।
हमको उन जैसा बनकर तो।
पूरे जग में बस जचना है।।3।।
पूरी दुनिया को जानोगे।
पर खुद को भी तुम जानोगे।।
शुद्धातम को तुम जानोगे।
बस जानोगे बस जानोगे ।।4।।
भगवान आत्मा सर्वोत्तम ।
भगवान आत्मा जगौत्तम।।
भगवान आत्मा सर्वश्रेष्ठ।
भगवान आत्मा परमश्रेष्ठ।।5।।
पूरी दुनिया है शोकमार्ग।
पूरी दुनिया में दुख अपार।।
अपने ही अपने दुश्मन है।
सब झूठे है सब झूठे है।।6।।
भगवान आत्मा परमसत्य।
भगवान आत्मा परमधर्म।।
भगवान आत्मा ही अपना।
अपना अपना अपना अपना ।।7।
भगवान आत्मा को जानो।
भगवान आत्मा को मानो।।
उसमे ही तुम जम लो रम लो ।
उसमे ही बस अपनापन हो।।8।।
भगवान आत्मा जग में श्रेष्ठ।
भगवान आत्मा जग में ज्येष्ठ।।
भगवान आत्मा परमोत्तम।
भगवान आत्मा उत्तोत्म।9।।
सब धर्मो में है सर्वश्रेष्ठ।
जिनशासन ही बस सर्वश्रेष्ठ।।
जिनसाशन के सच्चे आराधक ।
सर्वश्रेष्ठ बस सर्वश्रेष्ठ।।10।।
जिनवाणी ही सच्ची वाणी ।
जिनवाणी ही सच्ची जननी।।
हम उसके है सच्चे सुपुत्र।
हम उसके है सच्चे सपूत ।।11।
नही बनना है हमको कुपुत्र।
नही बनना है हमको अपूत।।
नही फंसना है हमको जग में ।
नही रमना है हमको जग में ।।12।।
नही करना हमको कोई पाप।
बस करना हमको एक ध्यान।।
बस करना हमको धर्म धर्म ।
नहीं करना हमको कर्म कर्म ।।13।।
कर्मो की सेना आती है ।
जीव उससे डरकर दब जाता।।
जीव उससे डरकर भग जाता।
बस जग में बस भ्रमता भ्रमत्ता ।।14।
जग में बस सब रोते रहते।
जग में बस सुख मानते रहते।।
जग में अपनापन मानत हो ।
तो रोवत हो बस रोवत हो ।।15।।
तीन लोक और तीन काल में।
जग में सुख नहीं हो सकता।।
जग में रहना बस निंदा है।
ज्ञानी जन निंदा नहीं सहते।।16।।
ज्ञानी जन निंदा नहीं सहते ।
बस आतम में रमते रहते।।
और आत्मा में जाकर ।
निंदक का सर्वनाश करते।।17।।
पापों का सर्वनाश करते।
कर्मो का बंध नाश करते।।
कर्मो की सेना को तो वह।
बस बार बार परास्त करते।।18।
सम्यकदर्शन को धारण कर ।
सम्यकज्ञान को प्राप्त करते।।
सम्यकचारित्र में लीन रहते।
और मोक्षमार्ग बढ़ते रहते।।19।।
मोखमार्ग की प्राप्ति कर ।
जो अनंत काल तक सुखी हुए।।
वो भव्य जीव है जग में बस ।
वो श्रेष्ठ जीव है सब में सब ।।20।।
बस एक बार तो जानो तो।
बस एक बार तो सोचो तो।।
कोन है सच्चे देव यहां ।
और कोन है सच्चा धर्म यहां।।21।।
रागियों से तुम राग करोगे।
पापो को ही तुम भोगेगे।।
इतना सुनकर तुम नही समझे ।
तो पग पग में तुम रोओगे ।।22।।
जिनवाणी मिलना मुश्किल है।
जिनशासन मिलना दुर्लभ है।।
जिनगुरुओं के ये परम ग्रंथ।
पढ़ना सुनना बस दुर्लभ है।।23।।
पूरे जग की बस यही रीत।
दुर्लभ की कद्र नहीं होती।।
जब दुर्लभ दूर चला जाए तो ।
याद उसकी आती रहती।।24।।
पूरा का पूरा ही जग तो ।
बस मिथ्यामार्ग का ही ढेर।।
पूरा का पूरा मोक्षमार्ग।
तो परमशुद्ध निश्चय का घेर।।25।।
तुमको जिनशासन धर्म मिला।
तुम तो उसका उपयोग करो।।
तुम परम ध्यान को धारोगे।
तो मोक्षगति को पाओगे।।26।।
लेकिन तुम तो अटके रहते ,।
लेकिन तुम तो भटके रहते,।।
बस जिनशासन ही परम धर्म ,।
बस जिनशासन ही जबरजस्त।।27।।
रंगरलियों में नही रमना तुम।
रंगरलियों में नही जमना तुम।।
किसको कहते तुम रंगरलियां ।
झूठी जग की है रंगरलियां।।28।।
जिनगुरू ही करते रंगरलियां।
आतम में करते रंगरलियां।।
वही रंगरलियां है करन योग्य ।
वही रंगरलियां है मनन योग्य।।29।।
जैनधर्म का एक सार।
जिनसिद्धांतो का एक सार।।
बस आतम ही है परम सार।
बस आतम ही है परम सार।।30।।
#पंच परमेष्ठिस्तुति#
अष्टादश दोषों से रहित ।
है अनंत गुणों से वो सहित।।
जो चार घातीयों को नाशें।
वो अरिहंत ही है श्रेष्ठ रवि।।31।।
जो देवों के देवाधिदेव।
जो है जग के परम श्रेष्ठ।।
जो है हम सबके आदर्शक।
वे है हम सबके परमात्म।।32।।
जो अ इ ऊ ऋॣॢ लृ शब्दों।
के अंत में मोक्ष गति पाते।।
वो मोक्ष गति के सिद्धों को।
वंदन करते -करतेजाते।।33।।
जिनका उपकार हम सब पर है।
जिनने अनंत उपकार किया।।
ग्रंथो को भेंट हमे करके।
उनको हमने है नमन किया ।।34।
वे आचार्य ही परम संत।
वे आचार्य ही परम पद।।
उनका उपकार हम सब पर है।
उनको वंदन हम करते हैं।।35।।
द्व्यादशांग के पाठी जो।
रिद्धियों के है धारी जो।
वे उपाध्याय ही परम पद।
वे उपाध्याय ही परम संत।।36।।
अट्ठाइस मुल्गुण के धारी।
अपने आतम के उपकारी।।
अपने में ही रमते रहते ।
वो साधु पुरुष है हितकारी ।।37।।
तुम परमेष्ठि को पहचानो।
उनको अपना तो ही मानो।।
वह परमेष्ठि है जगोत्तम।
वह परमेष्ठि है परमोत्तम।।38।।
जो होना है सब निश्चित है।
जो हो रहा है वह भी निश्चित।।
जो हो गया वह भी निश्चित।
आगे होगा वह भी निश्चित ।।39।।
इसमें कुछ नही तुम कर सकते।
सर्वज्ञाें की वाणी है यह।।
इसमें तुम शंका क्यों करते ।
हम सबकी महारानी है यह ।।40।।
यदि शंका तुम करते हो।
तो जिनशासन पर हो कलंक।।
तुमने ठुकराया जिनशासन ।
सुख अब तुमको ठुकराएगा।।41।।
तुम भव भव में अब रोओगे,।
तुम भक्ति में ही फंसोगे।।
पर अब तुम तो मोखमार्ग में,।
सबसे पीछे ही होगे।।42।।
तुम भक्ति पूजन करते हो ।
अशुद्ध भाव में रमते हो।।
तुम शुद्धभाव से अनभिज्ञ ।
क्यों रहते हो क्यों रहते हो।। 43।।
देव शास्त्र गुरु परम श्रेष्ठ।
पूरे जग में है वही ग्रेट।।
जिनशासन के है उद्धारक।
हम सब है उनके आराधक।।44।।
हम सब है उनके परम भक्त।
हम सबके है वे परम सत्य।।
हम सबके सब है ज्ञायक जीव।
हम सब है उसके लायक जीव ।।45।।
सर्वज्ञाें द्वारा कही गई।
जिंगुरुओं द्वारा लिखी गई ।।
यदि होगी सच्ची श्रद्धा।
उसमे ही तुम जमना रमना ।।46।।
यदि नही करते सच्ची श्रद्धा।
तो सच्चे नही तुम अनुयाई।।
जो सच्चे नही है जग में तो।
बस रहेंगे वो ही दुखदाई।।47।।
आचार्य कुंदकुंद अपने ही।
ग्रंथो में कहते है भाई।।
समयसार के पुण्यपाप अधिकार ।
में कहते है भाई।।48।।
क्या कहते है सुन लो भाई।
रोम रोम हो गए खड़े।।
पुन्य पाप है अशुद्ध भाव।
कहा गया जिनशासन में।।49।।
लोहे की बेड़ी बंधन है।
तो सोने की बेड़ी बंधन।।
दोनो ही बंधन बंधन है ।
तो अशुद्ध भाव भी है बंधन।।50।।
पूरे जग में बस यही राग ।
पूरे जग में है अंधकार।।
अशुद्ध भाव का अंधकार।
पूरे जग में बस भरमाया ।।51।।
लेकिन ज्ञानी विद्वानी जीव।
इनसे रहते हैअनभिज्ञ।।
नही करते वे अशुद्धभाव।
बस करते है वे शुद्ध भाव।।52।।
वे ज्ञानी है वे ध्यानी है ।
वे जिनशासन के महाराजा।।
वे जिनशासन के परमभक्त।
वे ही है सबसे जबरजस्त।। 53 ।।
उन वीतरागी संतो के ।
चरणों में तुम तो झुक जाओ।।
उन परम वीतरागी जैसे।
ज्ञानी के सम्मुख झुक जाओ।।54।।
तुम भी उन जैसे बन जाओ।
तुम संतो जैसे हो जाओ।।
है यही संत हम सबके तो ।
बस प्रतिरूपक बस प्रतिरूपक।।55।।
पूरे जग में बस यही मार्ग ।
जो पहुंचाता है मोक्षधाम।।
पूरे जग में बस यही बात।
सुनते है थोड़े जीव आज।।56।।
सब करते है बस काम काज।
इससे नही मिलता समय आज।।
बस यही है सबका यह कारण ।
जिससे न होता भवनाशक।।57।।
भव का विध्वंश अब करना है।
निज आतम में ही रमना है।।
सम्यकदर्शन अब धरना है।
भव भव से नही अब डरना है।।58।।
सच्चे भगवन को अब जानो।
पंच परमेष्ठि को पहचानो।।
बस पंच परमेष्ठि का मारग ।
तुमको ही होगा सुखकारक।।59।।
जिसके कारण भगवान बने ।
वह आतम ही सच्चा कारण।।
तो तुम भी जानो अपने को।
तो निश्चित ही भगवान बनो।।60।।
जिनशासन है अनमोल रत्न ,।
भगवान आत्मा परम रत्न ।।
रोको तुम अपना चंचल मन।।
तो तुमने पाओगे चिदानंद।।61।।
तुम आनंद अमृत पाओगे।
तुम आनंद का घर पाओगे।।
वे आनंद ही है सुखकारी।
भगवान आत्मा सुखकारी।।62।।
भगवान आत्मा मैं ही हूं।
आनंदकारी भी मैं ही हूं।।
जल्दी जानू मैं अपने को।
अब मोक्षमार्ग में देरी क्यों?।।63।।
यहां प्रश्न करेगा अनुयायी।
संसारमार्ग है सुखकारी।।
संसार में केवल सुख ही है।
और मोक्षगति में कुछ नही है ?।।64।।
ज्ञानी गुरु उसको कहते है।
संसार में केवल दुख ही है।।
संसार में किंचित सुख होता ।
तो ज्ञानी जन इसमें रहते।।65।।
संसार मार्ग है दुखकारी।
संसार मार्ग है अपकारी।।
संसार मार्ग है दुख ही दुख ।
और मोखमार्ग में सुख ही सुख।।66।।
तुम धारण करो निर्ग्रंथ मार्ग।
भगवान आत्मा एक सार।
तुम जल्दी बनो भगवान आप्त ।
और जाओ जल्दी मोक्षधाम।।67।।
तुममें शक्ति अनंत अपार ।
खुद को जानो तो एक बार।।
बस एक बार बस एकबार।
खुद को जानो तो एक बार।।68।।
सच में अपने में सुख ही है।
पर में तो केवल दुख ही है।।
पर में अपनापन क्यों करते।
खुद को क्यों नहीं परख सकते।।69।।
भगवान बने है नंत जीव।
आगे भी बनते जाएंगे।।
तुमको यह सुंदर मार्ग मिला।
तब भी अज्ञानी रह जाते।।70।।
इतने सुंदर संयोगो में।
अच्छे से तुम निजध्यान करो।।
अच्छे से तुम अध्यन करो ।
बस पढ़ो पढ़ो बस मनन करो।71।।
बस रमो रमो बस रमो रमो।
निज आतामा में ही जमो जमो ।।
कर्मो का तुम बस हनन करो।
अध्यन करो चिंतवन करो।।72।।
जिनवाणी का तुम मनन करो।
जिनगुरूओं की तुम विनय करो।।
जिनशासन में श्रद्धा करके ।
कर्मो का तुम बस वमन करो।।73।।
संयोगों में सुख भोगेेगे ।
तो भवों भवों में रोओगे।।
अपने में ही सुख भोगोगे।
तो भवों भवों को तोड़ोगे।।73।।
जिनशासन धर्म निराला है ।
जिनशासन सबका प्यारा है।।
हम गर्व करे अपने उप्पर।
जिनशासन पंथ हमारा है।।74।।
हमको जिनशासन धर्म मिला।
हमको अच्छा संयोग मिला।।
सम्यक्त्व प्रगट करने का मोका।
पूरे जग में हमे मिला।।75।।
हम नही गवांए यह अवसर।
अब नही गवाएं यह अवसर।।
अब नही मिलेगा यह अवसर।
पूरे जग में बस भ्रमण भ्रमण।76।।
भव भ्रमण भ्रमण करते रहना।
पर का बोझा ढोते रहना।।
पर में अपनापन करते हो ।
तो नरकादिक में मरते हो।।77।।
यह सब दुख तुमको क्यू मिलते।
क्यूंकि तुम पर में ही रमते ।।
जिनवाणी को तुम त्यागोगे।
तो दुखसागर में रोओगे ।।78।।
मुनिराजो ने तो पग पग पर।
तुमको समझाया बहुत बार।।
लेकिन तुम समझे नही भाई।
तो सर्वज्ञों का क्या कहना।।79।।
क्रमनियमित पर्याय समझो।
जिनसिद्धांतो को तुम समझो।।
जिनवाणी को तुम अब धारो।
निर्ग्रंथ धरम अब अपनाओ।।80
तुम मोक्षमार्ग को अपनाओ।
तुम मोक्षमार्ग को समझाओ।।
तुम तीर्थंकर होकर भाई।
पूरे जग को बस समझाओ।।81।।
दिव्यध्यनी निकली पर से ।
लेकिन जीवों को सुखकारी।।
जीवों को धर्म सुनाती है।
वे अरहंत ही है उपकारी।।82।।
तुम हिंसा हिंसा करते हो ।
तुम राग द्वेष में मरते हो।।
तुम राग द्वेष को धारण कर।
अपने आतम को छलते हो।।83।।
तुम अपने को तो क्यों छलते।
और पर को भी तुम क्यों छलते।।
तुमको लज्जा क्यू नही आती।
तुम जिनशासन को क्यों छलते।।84।।
तुम जिनशासन को क्यों छलते।
अपनेपन को तुम क्यों छलते।।
टोडरमल जी कहते रहते।
जिनआज्ञा भंग नही करना।। 85
अपने आतम में आजाओ।
तुम समयसार को अपनाओ ।।
तुम अपने में अपनापन कर।
अपनेपन का सदुपयोग कर।।86।।
यह अवसर तुमको बहुत मिले।
लेकिन तुमने नही ध्यान दिया।।
अब तो सुनकर ध्यावो भाई।
जल्दी जल्दी आओ भाई।।87।।
तुम चेतन राजा हो भाई।
फिर भी तुम भटके क्यो भाई।।
तुममें है सक्ति अनंत ढेर।
नही बाहर खोजो मेरे शेर।।88।।
जिनवाणी तुमको कहती भव्य।
जिनगुरु भी तुमको कहते भव्य।।
एक बात मानो भाई।
जिनशासन ही है उपकारी।।89।।
हम जिनशासन के परम भक्त।
हम जिनगुरूओ के परम भक्त।।
हम जिनवाणी के परम भक्त।
जिनदेवों के हम सच्चे भक्त।।90।।
मुरखता जग में भरी हुई ।
अज्ञानता जग में भरी हुई।।
तुम कुछ भी मत देखो भाई।
अपना आतम देखो भाई।।91।।
अब काललब्धि आ गई हमरी।
जग को छोड़न की है बारी।।
उनको ही आतम राम मिला।
जिसने खुद है पहचाना।।92।।
संयोग वियोग आते रहते ।
इसमें अटको भटको मत तुम।।
संपूर्ण जग एक मेला है।
हम सबका यही झमेला है।।93।।
तुमने रूचिता पर दिया ध्यान।
तुमने जिनवाणी सुनी आज।।
तुम निश्चित हो भवत्व जीव।
इसमें नही शंका कभी नहीं।।94।।
जिसके माथे पर जिनवाणी ।
जिसके रक्तो में जिनवाणी।।
वह जीव सदा ही सुख पाता।
दुख उसके पास नही आता।।95।।
बस इतना ही हमको कहना ।
सर्वज्ञाें का भी यही कहना।।
जिनवाणी का भी यही कहना ।
मुनिराजों का भी यही कहना।।96।।
तुम अनंत चतुष्य प्रगट करो।
भगवान आत्मा प्रगट करो।।
तुम स्वर्ण आत्मा को धारो।
तुम स्वर्ण शतक को पहचानो।।97।
तुम मोक्षमार्ग को पहचानो।
जल्दी जल्दी धारो धारो।।
निर्ग्रंथ धरम को अपनाओ।
भगवान आत्मा संवारो।98।।
बस इतना ही मुझको कहना।
जिनशासन ही मेरा गहना।।
सब करें जीव अपना कल्याण।
बस इतना ही मेरा कहना।।99।।
संपूर्ण धर्म का एक सार ।
सर्वज्ञोंं की बस एक बात।।
जिनवाणी की भी एक बात।
जग को मारो तुम एक लात।।100।।
जग से भिन्नत्व है मम स्वभाव ।
बस चिदानंद मेरा स्वभाव।।
भगवान आत्मा परम सुखी।
जो उसको जाने वही सुखी।।101।।
। सभी को जयजीनेद्र।
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