Friday 26 November 2021

👑👑जैन धर्म की प्राचीनता का इतिहास👑👑 भाग 1

        
 
             

                                                 ।  सिद्ध परमेष्ठि भगवंतो की जय हो
 



  इतिहास एक विषय है जो इति + ह + आस शब्दों के जोड़ से बना है जिसका अर्थ ‘’ यह निश्चय था’’ है। ग्रीस के लोग इतिहास को “हिस्तरी” यानि History शब्द से पुकारते थे जिसका मतलब “बुनना” था।


भारत की धरती पर प्राचीन काल से प्रचलित अनेकानेक धर्मों में प्राचीनतम धर्म के रूप में माना जाने वाला जैनधर्म है, जो विशेषरूप से जितेन्द्रियता पर आधारित है।



जैनधर्म के प्राचीन मनीषी आचार्यों ने इस धर्म की व्याख्या इस प्रकार की है-‘‘कर्मारातीन् जयतीति जिनः’’, ‘‘जिनो देवता यस्यास्तीति जैनः’’ अर्थात् कर्मरूपी शत्रुओं को जिन्होंने जीत लिया है वे ‘‘जिन’’ कहलाते हैं और जिन को देवता मानने वाले उपासक ‘जैन’ माने गये हैं। इस विस्तृत व्याख्या वाले जैनधर्म के प्रति अनेक विद्वान भी अपनी यह विचारधारा प्रस्तुत करते हैं कि ‘‘जैनधर्म किसी खास जाति या सम्प्रदाय का धर्म नहीं है बल्कि यह अन्तर्राष्ट्रीय, सार्वभौमिक तथा लोकप्रिय धर्म है। जैन तीर्थंकरों की महान आत्माओं ने संसार के राज्यों के जीतने की चिंता नहीं की थी। राज्यों का जीतना कुछ ज्यादा कठिन नहीं है। जैन तीर्थंकरों का ध्येय राज्य जीतने का नहीं, बल्कि स्वयं पर विजय प्राप्त करने का रहा है। यही एक महान ध्येय है और मनुष्य जन्म की सार्थकता इसी में है।’’
       

 लोग 'जैन' को जातिवाचक संज्ञा समझ लेते हैं और वर्तमान में मात्र जैन लोगों को ही जैन धर्म का अनुयायी मान लेते हैं। किंतु वस्तुतः 'जैन' एक धर्म है, जाति नहीं। इसका जाति से कोई संबंध नहीं है। किसी भी जाति का मानव जैन धर्म का पालन कर सकता है। प्राचीन काल में ऐसा अधिकतर होता रहा है। किंतु अब तक के इतिहास में कभी किसी को जबरन जैन धर्मानुयायी नहीं बनाया गया और न इस तरह के विश्वास को पनपने दिया गया। यहाँ जाति का तात्पर्य मात्र ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र से नहीं है बल्कि मनुष्यों के अलावा पशुओं से भी है। तीर्थंकरों के समवशरण (धर्म उपदेश सभा) में उनके सर्वकल्याणकारी प्रवचन सुनने सभी जाति के मनुष्य तो आते ही थे; यहाँ तक कि पशु-पक्षियों के बैठने की भी व्यवस्था थी क्योंकि उनके उपदेश सर्वभाषामयी जनभाषा प्राकृत में होते थे। यद्यपि उस समय देव भाषा संस्कृत में ही उपदेश देने की परंपरा थी किंतु भगवान महावीर ने ऐसा न करके लोक में राष्ट्रभाषा के रूप में प्रचलित जनभाषा प्राकृत में ही उपदेश दिए और उनके उपदेशों पर आधारित सभी मूल-आगम भी प्राकृत भाषा में ही निबद्ध हुए। इस दृष्टि से यह भगवान महावीर की भाषायी क्रांति भी थी।

      


 जैन धर्म अनादि निधन धर्म है। यह धर्म अनादि से संपूर्ण विश्व में था है और रहेगा। लेकिन वर्तमान में कुछ व्यवधारणों के साथ युग जैन धर्म को प्राचीन नही मानता । लेकिन अन्य मतावलंबियों के ग्रंथो में जैन धर्म की प्राचीनता एवं अन्य लोगो ने भी जैन धर्म के बारे में बहुत कहा है इसकी बहुत महिमा गाई है। अतः कुछ प्रमाण हम नीचे देखते है:-


यह बात वेद, पुराण, उपनिषद् तथा भारतीय एवं पाश्चात्त्य विद्वानों के मंतव्यों से सत्य प्रमाणित हो चुकी है कि जैनधर्म अन्य समस्त धर्मों की अपेक्षा प्राचीन है। जैनधर्म अने तेनी प्राचीनता' नामक पुस्तक की प्रस्तावना में पं. श्री अम्बालाल लिखते हैं :-


"स्पष्ट रुपेण बौद्ध धर्म हजार वर्ष पूर्व ही प्रगट हुआ है । यही नहीं, भगवान बुद्ध ने जैन सिद्धान्तों का अनुभव किया था । जैन सिद्धान्तों में प्रतिपादित मार्ग पराकाष्ठा उबकर ( उकताकर) ही उन्होंने मध्यममार्ग प्रचलित किया । वही बौद्ध धर्म के रूप में प्रसारित हुआ । यह तथ्य ऐतिहासिक है ।"


वेदों में कतिपय नाम ऐसे स्पष्ट हैं कि वे जैनधर्म के तीर्थंकरो के नामों की सूचना देते हैं । श्रीमद् भागवतकार ने श्री ऋषभदेव का चरित्र अतीव स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है। उन्हें हिन्दुधर्म के २४ अवतारों में भी स्थान प्रदान किया है। इस से जैनधर्म की प्राचीन परम्परा का स्पष्ट पता चलता है ।

" भगवान महावीर के ११ गणधर और उनके बाद होनेवाले कई धुरंधर जैनाचार्य अधिकतर वैदिक शास्त्रों के विद्वान ब्राह्मण थे । उन्होंने अपनी (वैदिक) ज्ञान की अपूर्णता से असन्तुष्ट होकर जैन धर्म की दीक्षा अंगीकार की थी। संसार के विविधधर्म तो उन-उन मुख्य व्यक्तियों के नाम से विख्यात हुए । गौतम बुद्ध नामक व्यक्ति
से बौद्ध धर्म, ईसामसीह नामक व्यक्ति से ईसाई धर्म, शिव से शैव धर्म, विष्णु से वैष्णव धर्म, हजरत मुहम्मद से इस्लाम धर्म, इसी प्रकार अन्य अनेक धर्म विशिष्ट व्यक्तियों के नाम से प्रसिद्ध हुए। परंतु इस प्रकार जैन धर्म 'ऋषभ' नाम के व्यक्ति या पार्श्व' नाम के व्यक्ति अथवा 'महावीर' नामक व्यक्ति के कारण ऋषभधर्म, पार्श्व धर्म, किंवा महावीर धर्म के रूप में विख्यात नहीं हुआ । वस्तुतः ‘जैन’ –धर्म गुण- निष्पन्न नाम है । "जो राग-द्वेषादि आभ्यंतर शत्रुओं पर विजय प्राप्त करता है वह 'जिन' कहलाता है ।" जिन द्वारा कथित धर्म 'जैन धर्म' कहलाता है, और जैनधर्म की उपासना करनेवाले को जैन कहते हैं ।
जैसे सागर में सब नदियां समा जाती है, वैसे ही जैन धर्म में सभी दर्शनों का समावेश हैं। अन्य विविध दर्शन एक एक नय का आश्रय लेकर प्रवर्तित हुए हैं । जब कि जैन दर्शन सप्तनय द्वारा गुंफित है । जैनदर्शन की सूक्ष्मातिसूक्ष्म कर्मपद्धति, जीवविज्ञान सूक्ष्म तपमीमांसा, नवतत्त्व का सुंदर स्वरुप, स्याद्वाद- अनेकांतवाद की विशिष्टता, अहिंसा-तप की पराकाष्ठा, योग की अद्वितीय साधना तथा व्रतों - महाव्रतों का सूक्ष्मरीति से प्ररूपणा व पालन... आदि की तुलना में आज तक कोई भी दर्शन समर्थ नहीं हो सका है। विश्व के धर्मों में सब प्रकार से यदि कोई धर्म पूर्ण धर्म हैं तो बह जैन धर्म ही है । विश्वशांति का मार्ग प्रदर्शित करने की क्षमता रखनेवाला यदि कोई मार्ग है तो वह जैनधर्म के सिद्धान्तों में ही निर्दिष्ट है।


          जैन धर्म की अतिप्राचीनता में जैनेतर शास्त्र के प्रमाण

जैन धर्म जैनेतरों के प्राचीनतम वेदों और पुराणों से पूर्व भी विद्यमान था, इस बात के निम्न लिखित प्रमाण हैं,


[१] "कैलासे पर्वते रम्ये, वृषभोऽयं जिनेश्वरः । 
चकार स्वावतारं यः, सर्वज्ञः सर्वगः शिवः" ।। १ ।।
                                        ( शिव पुराण) 

अर्थ:-"(केवलज्ञान द्वारा) सर्वव्यापी, कल्याण स्वरूप, सर्वज्ञ इस प्रकार के ऋषभदेव - जिनेश्वर मनोहर कैलास (अष्टापद) पर्वत पर अवतरित हुए । "



[२] "रैवताद्रौ जिनो नेमिर्युगादिर्विमलाचले ।
 ऋषीणामाश्रमादेव, मुक्तिमार्गस्य कारणम्" ||२||
                                        (प्रभासपुराण)

अर्थः- रैवतगिरि (गिरनार) पर नेमिनाथ, और विमलाचल (शत्रुंजय सिद्धगिरि) पर युगादि (आदिनाथ) पधारे। ये गिरिवर ऋषियों के आश्रम होने के कारण मुक्तिमार्ग के हेतु हैं ।"

           नाग पुराण में नेमीनाथ स्वामी को नमस्कार किया है

[३] "अष्टषष्टिषु तीर्थेषु, यात्रायां यत् फलं भवेत् । 
आदिनाथस्य देवस्य स्मरणेनापि तद् भवेत्" ।।७।।
                                            (नाग पुराण)


अर्थ:- ६८ तीर्थों में यात्रा करने से जो फल मिलता है वह फल आदिनाथ- देव का स्मरण करने से भी प्राप्त होता है ।" (श्री ऋषभदेव का दूसरा नाम आदिनाथ भी है ।)
                                             


[अ ४-४-३२-५ ऋग्वेद]
अर्थ:-"जैसे सूर्य किरणों को धारण करता है, वैसे अरिहंत ज्ञान की राशि धारण करते हैं ।"

[5] "मरुदेवी चा नभिश्च भारतते कुलसत्तमः। 
र्शन वर्त्मा वीराना, सुरसुरनामस्क्रुतः। 
नित्यारण कर्ता यो, युगदाऊ प्रथमो जिन: ".. 6 ..
                                            (मनुस्मृति)

अर्थ:- "भरतक्षेत्र में छट्ठे कुलकर मरुदेव और सातवें नाभि हुए । आठवाँ कुलकर नाभि द्वारा मरुदेवी से उत्पन्न विशाल चरणवाला ऋषभ हुआ । वह वीर पुरुषों का मार्गदर्शक, सुरासुर द्वारा प्रणत तथा तीन नीतियों का उपदेशक युग के प्रारम्भ में जिन हुआ।"

"नाहं रामो न मे वांछा, भावेषु च न मे मनः । 
शान्तिमास्थातुमिच्छामि, स्वात्मन्येव जिनोयथा" ।।७।।
                                           (योगवाशिष्ठ)

अर्थ:- "मैं राम नहीं हूँ, मेरी कोई इच्छा नहीं, पदार्थों में मेरा मन नहीं । जिस प्रकार 'जिन' अपने आत्मा में शान्त भाव से स्थिर रहते हैं उसी प्रकार शांत भाव से मैं स्वात्मा में ही रहना चाहता है ।

 
                                      अधूरी इच्छा

"संस्कृत साहित्य का इतिहास तथा विविध ग्रंथों के लेखन कार्य के समय मुझे जैन धर्म, दर्शन, साहित्य और इसके इतिहास के गहन अध्ययन का सौभाग्य प्राप्त हुआ। इन सबके अध्ययन से जैन धर्म के प्रति मेरा काफ़ी लगाव रहा और | प्रभावित रहा हूँ। मेरे द्वारा लिखित अन्य ग्रंथों की तरह जैन धर्म-दर्शन और साहित्य के इतिहास तथा विवेचन से संबंधित स्वतंत्र ग्रंथ लिखने की प्रबल भावना | रही, मन में इसकी पूरी रूपरेखा भी रही; किंतु अन्यान्य-लेखन में व्यस्तता के चलते यह इच्छा अधूरी ही रही।"

(-पद्म भूषण पं० बलदेव उपाध्याय, प्राकृत विद्या : वर्ष 13, अंक 4, पृ० 32)

बुद्ध और महावीर की समकालीनता के आधार पर जैन और बौद्ध धर्म को समान प्राचीन समझा जाए तो यह उचित नहीं है। इससे भी आगे विद्वान जैन दर्शन को बौद्ध दर्शन की शाखा तक कह देते हैं। 


जैसा कि श्री डब्ल्यू. एस. लिले कहते हैं, कि “बौद्ध धर्म अपनी जन्म भूमि में जैन धर्म के रूप में टिका हुआ है। यह निश्चित बात है कि जब भारत वर्ष में बुद्ध धर्म अदृश्य हो गया, जैन धर्म दिखलाई पड़ा था।" इन भ्रामक और असत्य अनुमानों को प्रस्तुत करने वाले विचारक जैन दर्शन ही नहीं वरन् संपूर्ण भारतीय दर्शन के इतिहास से अनभिज्ञ ही हैं। यहाँ तक कि बौद्ध दर्शन के ये पक्षपाती बौद्ध दर्शन का भी परिपूर्ण ज्ञान नहीं रखते। अन्यथा वे ऐसे भ्रामक विचार कभी नहीं रखते, क्योंकि स्वयं बौद्ध दर्शन में भी जैन दर्शन की प्राचीनता के प्रमाण विद्यमान हैं।

 बौद्ध ग्रंथ धम्मपद में विविध स्थानों पर जैन संस्कृति के शब्दों का प्रयोग हुआ है और उनका विवेचन किया गया है। प्रथम अध्याय में ही गाथा 19-20 में श्रामणस्य' शब्द का प्रयोग हुआ है - 'अप्पम्पि चे संहितं भासमानो, धम्मस्य होति अनुधम्मचारी।

रागञ्च दोसञ्च पहाय मोह, सम्मप्य जानों सुविमुत्त चित्तो
अनुपादियानों इधवा दुरं वा स भगवा सामञ्ञस्स होती ॥' 

अर्थात् चाहे अल्पमात्र ही संहिता का भाषण करें, किंतु यदि वह धर्म के अनुसार आचरण करने वाला हो, राग, द्वेष, मोह को त्यागकर अच्छी प्रकार सचेत और अच्छी प्रकार मुक्तचित्त हो, यहाँ और वहाँ बटोरने वाला न हो तो वह श्रमणपन का भागी होता है।

7वें अध्याय में अर्हन्तवग्गो" शब्द आया है, जिसमें कहा गया है कि जहाँ अर्हत व चीतराग रमण करते हैं, वहीं रमणीय भूमि है। इसके अतिरिक्त अनेक स्थानों पर " श्रमणो" शब्द का विवेचन हुआ है

अलङ्कतो चेपि समं चरेय्य, सन्तो दन्तो नियतो ब्रह्मचारी। 
सब्बेसु भूतेसु निधाय दण्डं, सो ब्रह्मणो सो समणो सभिक्खू ॥" अर्थात् अलंकृत रहते भी शान्त, दान्त, नियम तत्पर, ब्रह्मचारी सारे प्राणियों के

प्रति दंडत्यागी है, तो वहीं ब्राह्मण है, वही भ्रमण है, वही भिक्षु है। आगे अध्याय चौदह व उन्नीस में भी श्रमण की विशेषताएँ बतायी गई हैं। अध्याय 19 में जैन तत्त्वमीमांसा में विवेचित एक तत्त्व आस्रव का उल्लेख किया गया है।

अध्याय 26 में अरहंत" शब्द प्रयुक्त हुआ है। आगे प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव (उसभं) शब्द का भी उल्लेख आया है।"


बौद्ध साहित्य में त्रिपिटक में बुद्ध और उनके अनुयायियों के विरोधी के रूप में "निगठ' शब्द का बारम्बार प्रयोग हुआ है। जैन श्रमण को निग्रंथ कहा जाता है। 'निगठ' शब्द निग्रंथ के ही पर्याय रूप में प्रयुक्त हुआ है। इस प्रकार बौद्ध साहित्य से ही स्पष्ट होता है, कि जैन दर्शन बौद्ध दर्शन का महान् प्रतिद्वन्द्वी था, न कि उससे • निकली शाखामात्र। इसके विपरीत प्राचीन जैन सूत्रों में बौद्धों का किंचित भी विवेचन नहीं मिलता तात्पर्य है कि निर्बंध बौद्ध सम्प्रदाय की उपेक्षा तक कर सकते थे अथवा संभव है कि निर्बंध संप्रदाय बौद्ध संप्रदाय के पहले से विद्यमान रहा हो।


इस प्रकार हम देखे की कितने प्रमाण अन्य साहित्यों में भी मिलते है। जो यह प्रमाणित करते है की जैन धर्म सबसे प्राचीन है और इसकी प्राचीनता हम सबका गौरव है अतः हम सब इसका गौरव बढ़ाते रहे ।
   यह भावना निरंतर रखते रहे की:-
 
  💫सर्वज्ञ शासन जयवंत वर्ते
निर्ग्रंथ शासन जयवंत वर्ते
जयवंत वर्ते श्री जिनवाणी
जिनधर्म जिनतीर्थ जयवंत वर्ते

  भाग 2 शीघ्र ही आएगा।
   सभी को जय जिनेन्द्र।































Tuesday 2 November 2021

स्वर्ण शतक




इस शतक में पंच परमेष्ठि ,जिनशासन की महिमा एवं 
जिनसिद्धांतो को समझाने का प्रयास किया गया है ।
यदि कोई भी भूल रही है तो ज्ञानी जन इसमें सुधार करे।

                          प्रारंभ करते है स्वर्ण शतक

               




                           ।।  👑स्वर्ण शतक👑।।
            
            

                            छंद  (  श्रंगार   )


।।  👑स्वर्ण शतक👑।।
            
                छंद  (  श्रंगार   )


नमन करूं मैं अरिहंतो को ।
नमन करूं मैं श्री सिद्धों को।।
नमन करूं मैं जिनवाणी को।
नमन करूं  मैं जिनगुरुओं को ।।

अरे जिनवाणी जीवन है।
अरे जिनवाणी ही धन है।।
अरे यह ही है सच्ची वाणी ।
अरे यह जिनगुरूओ की धारी।।


अरे सर्वज्ञों की वाणी ।
ही तो सच्चा जीवन धन है।।
यही है हितकारी वाणी।
यही है सुखकारी वाणी ।।

अरे जिनवाणी ही सुख है।
अरे जिनवाणी ही धन है।।
अरे तुम जिनवाणी जानो।
अरे  जिन गुरुओं को मानो।।
           
                      छंद - पद्धरि

सर्वज्ञाें को मैं नमन करूं ।
          जिन गुरुओं का स्मरण करूं।।
जिनवाणी सच्ची साथी है।
          उसका ही बस मैं मनन करूं ।। 1 ।।

पंच परम परमेष्ठि ही तो।
              एक मात्र जग में  है श्रेष्ठ।।
वह पंच परम परेमस्थी ही तो ।
                      पूरे जग में सर्वश्रेष्ठ।।2।।


हमको उन जैसा बनना है ।
          हमको सहज ही बनना है।।
हमको उन जैसा बनकर तो।
         पूरे जग में बस जचना है।।3।।


पूरी दुनिया को जानोगे।
         पर खुद को भी  तुम जानोगे।।
शुद्धातम को तुम जानोगे।
         बस जानोगे बस जानोगे ।।4।।

भगवान आत्मा सर्वोत्तम ।
            भगवान आत्मा जगौत्तम।।
भगवान आत्मा सर्वश्रेष्ठ।
             भगवान आत्मा परमश्रेष्ठ।।5।।



पूरी दुनिया है शोकमार्ग।
      पूरी दुनिया में दुख अपार।।
अपने ही अपने दुश्मन है।
       सब झूठे है सब झूठे है।।6।।

भगवान आत्मा परमसत्य।
       भगवान आत्मा परमधर्म।।
भगवान आत्मा ही अपना।
       अपना अपना अपना अपना ।।7।

भगवान आत्मा को जानो।
            भगवान आत्मा को मानो।।
उसमे ही तुम जम लो रम लो  ।
            उसमे ही बस अपनापन हो।।8।।




भगवान आत्मा जग में श्रेष्ठ।
               भगवान आत्मा जग में ज्येष्ठ।।
भगवान आत्मा परमोत्तम। 
             भगवान आत्मा उत्तोत्म।9।।


सब धर्मो में है सर्वश्रेष्ठ।
         जिनशासन ही बस सर्वश्रेष्ठ।।
जिनसाशन के सच्चे आराधक ।
          सर्वश्रेष्ठ बस सर्वश्रेष्ठ।।10।।

जिनवाणी ही सच्ची वाणी ।
           जिनवाणी ही सच्ची जननी।।
हम उसके  है सच्चे सुपुत्र।
            हम उसके है सच्चे सपूत ।।11।

नही बनना है हमको कुपुत्र।
              नही बनना है हमको अपूत।।
नही फंसना है हमको जग में ।
              नही रमना है हमको जग में ।।12।।

नही करना हमको कोई पाप।
            बस करना हमको एक ध्यान।।
बस करना हमको धर्म धर्म ।
             नहीं करना हमको कर्म कर्म ।।13।।

कर्मो की सेना आती है ।
            जीव उससे डरकर दब जाता।।
जीव उससे डरकर भग जाता।
           बस जग में बस भ्रमता भ्रमत्ता ।।14।

जग में बस सब रोते रहते।
          जग में बस सुख मानते रहते।।
जग में अपनापन मानत हो ।
          तो रोवत हो बस रोवत हो ।।15।।

तीन लोक  और तीन काल में।
                 जग में सुख नहीं हो सकता।।
जग में रहना बस निंदा है।
                ज्ञानी जन निंदा नहीं सहते।।16।।

ज्ञानी जन निंदा नहीं सहते ।
             बस आतम में रमते रहते।।
और आत्मा में जाकर ।
              निंदक का सर्वनाश करते।।17।।


पापों का सर्वनाश करते।
       कर्मो का बंध नाश करते।।
कर्मो की सेना को तो वह।
      बस बार बार परास्त करते।।18।

सम्यकदर्शन को धारण कर ।
          सम्यकज्ञान  को प्राप्त करते।।
सम्यकचारित्र में लीन रहते।
         और मोक्षमार्ग बढ़ते रहते।।19।।


मोखमार्ग की प्राप्ति कर ।
          जो अनंत काल तक सुखी हुए।।
वो भव्य जीव है जग में बस ।
           वो श्रेष्ठ जीव है सब में सब ।।20।।

  बस एक बार तो जानो तो।
           बस एक बार तो सोचो तो।।
कोन है सच्चे देव यहां ।
          और कोन है सच्चा धर्म यहां।।21।।


रागियों से तुम राग करोगे।
          पापो को ही तुम भोगेगे।।
इतना सुनकर तुम नही समझे ।
          तो पग पग में तुम रोओगे ।।22।।

जिनवाणी मिलना मुश्किल है।
             जिनशासन मिलना दुर्लभ है।।
जिनगुरुओं के ये परम ग्रंथ।
       पढ़ना सुनना बस दुर्लभ है।।23।।


पूरे जग की बस यही रीत।
         दुर्लभ की कद्र नहीं होती।।
जब दुर्लभ दूर चला जाए तो ।
         याद उसकी आती रहती।।24।।


पूरा का पूरा ही जग तो ।
         बस मिथ्यामार्ग का ही ढेर।।
पूरा का पूरा मोक्षमार्ग।
        तो परमशुद्ध निश्चय का घेर।।25।।


तुमको जिनशासन धर्म मिला। 
          तुम तो उसका उपयोग करो।।
तुम परम ध्यान को धारोगे।
           तो मोक्षगति को पाओगे।।26।।

लेकिन तुम तो अटके रहते ,।
           लेकिन तुम तो भटके रहते,।।
बस जिनशासन ही परम धर्म ,।
           बस जिनशासन ही जबरजस्त।।27।।


रंगरलियों  में नही रमना तुम।
              रंगरलियों में नही जमना तुम।।
किसको कहते तुम रंगरलियां ।
                झूठी जग की है रंगरलियां।।28।।

जिनगुरू ही करते रंगरलियां।
                आतम में करते रंगरलियां।।
वही रंगरलियां है करन योग्य ।
             वही रंगरलियां है मनन योग्य।।29।।


जैनधर्म का एक सार।
                जिनसिद्धांतो का एक सार।।
बस आतम ही है परम सार।
               बस आतम ही है परम सार।।30।।

                 #पंच परमेष्ठिस्तुति#


अष्टादश दोषों से रहित ।
        है अनंत गुणों से वो सहित।।
जो चार घातीयों  को नाशें।
           वो अरिहंत ही है श्रेष्ठ रवि।।31।। 

जो देवों के देवाधिदेव।
            जो है जग के परम श्रेष्ठ।।
जो है हम सबके आदर्शक।
             वे है हम सबके परमात्म।।32।।



जो अ इ ऊ ‌ऋॣॢ  लृ शब्दों।
                     के अंत में मोक्ष गति पाते।।
वो मोक्ष गति के सिद्धों को।
              वंदन  करते -करतेजाते।।33।।



जिनका उपकार हम सब पर है।
                  जिनने अनंत उपकार किया।।
ग्रंथो को भेंट हमे करके।
               उनको हमने है नमन किया ।।34।

वे आचार्य ही परम संत।
                 वे आचार्य ही परम पद।।
उनका उपकार हम सब पर है।
               उनको वंदन हम करते हैं।।35।।

द्व्यादशांग के पाठी जो।
              रिद्धियों के है धारी जो।
वे उपाध्याय ही परम पद।
              वे उपाध्याय ही परम संत।।36।।


अट्ठाइस मुल्गुण के धारी।
               अपने आतम के उपकारी।।
अपने में ही रमते रहते ।
               वो साधु पुरुष है हितकारी ।।37।।

तुम परमेष्ठि को पहचानो।
               उनको अपना तो ही मानो।।
वह परमेष्ठि है जगोत्तम। 
               वह परमेष्ठि है परमोत्तम।।38।।


जो होना है सब निश्चित है।
         जो हो रहा है वह भी निश्चित।।
जो हो गया वह भी निश्चित।
          आगे होगा वह भी निश्चित ।।39।।

इसमें कुछ नही तुम कर सकते।
                सर्वज्ञाें की वाणी है यह।।
इसमें तुम शंका क्यों करते ।
             हम सबकी महारानी है यह ।।40।।

यदि शंका तुम करते हो।
                तो जिनशासन पर हो कलंक।।
तुमने ठुकराया जिनशासन  ।
             सुख अब तुमको ठुकराएगा।।41।।
             

तुम भव भव में अब रोओगे,।
                  तुम भक्ति में ही फंसोगे।।
पर अब तुम तो मोखमार्ग में,।
                  सबसे पीछे ही होगे।।42।।


तुम भक्ति पूजन करते हो ।
        अशुद्ध भाव में रमते हो।।
तुम शुद्धभाव से अनभिज्ञ ।
        क्यों रहते हो क्यों रहते हो।। 43।।

देव शास्त्र गुरु परम श्रेष्ठ।
               पूरे जग में है वही ग्रेट।।
जिनशासन के है उद्धारक।
              हम सब है उनके आराधक।।44।।


हम सब है उनके परम भक्त।
         हम सबके है वे परम सत्य।।
हम सबके सब है ज्ञायक जीव।
         हम सब है उसके लायक जीव ।।45।।

सर्वज्ञाें द्वारा कही गई।
             जिंगुरुओं द्वारा लिखी गई ।।
यदि होगी सच्ची श्रद्धा।
             उसमे ही तुम जमना रमना ।।46।।

यदि नही करते सच्ची श्रद्धा।
              तो सच्चे नही तुम अनुयाई।।
जो सच्चे नही है जग में तो।
               बस रहेंगे वो ही दुखदाई।।47।।



आचार्य कुंदकुंद अपने ही।
               ग्रंथो में कहते है भाई।।
समयसार के पुण्यपाप अधिकार ।
               में कहते है भाई।।48।।


क्या कहते है सुन लो भाई।
           रोम रोम हो गए खड़े।।
पुन्य पाप है अशुद्ध भाव।
            कहा गया जिनशासन में।।49।।



लोहे की बेड़ी बंधन है।
        तो सोने की बेड़ी बंधन।। 
दोनो ही बंधन बंधन है ।
         तो अशुद्ध भाव भी है बंधन।।50।।


पूरे जग में बस यही राग ।
          पूरे जग में है अंधकार।।
अशुद्ध भाव का अंधकार।
           पूरे जग में बस भरमाया ।।51।।

लेकिन ज्ञानी विद्वानी जीव।
             इनसे रहते हैअनभिज्ञ।।
नही करते वे अशुद्धभाव।
           बस करते है वे शुद्ध भाव।।52।।


वे ज्ञानी है वे ध्यानी है ।
            वे जिनशासन के महाराजा।।
वे जिनशासन  के परमभक्त।
            वे ही है सबसे जबरजस्त।। 53  ।।


 उन वीतरागी संतो के ।
             चरणों में तुम तो झुक जाओ।।
 उन परम वीतरागी जैसे।
           ज्ञानी के सम्मुख  झुक जाओ।।54।।

तुम भी उन जैसे बन जाओ।
               तुम संतो जैसे हो जाओ।।
है यही संत हम सबके तो ।
         बस प्रतिरूपक बस प्रतिरूपक।।55।।

पूरे जग में बस यही मार्ग ।
              जो पहुंचाता है मोक्षधाम।।
पूरे जग में बस यही बात।
              सुनते है थोड़े जीव आज।।56।।
             

सब करते है बस काम काज।
               इससे नही मिलता समय आज।।
बस यही है सबका  यह कारण ।
               जिससे न होता भवनाशक।।57।।

भव का विध्वंश अब करना है।
               निज आतम में ही रमना है।।
सम्यकदर्शन अब धरना है।
            भव भव से नही अब डरना है।।58।।


सच्चे भगवन को अब जानो।
               पंच परमेष्ठि को पहचानो।।
बस पंच परमेष्ठि का मारग ।
               तुमको ही होगा सुखकारक।।59।।

 जिसके कारण भगवान बने ।
                  वह आतम ही सच्चा कारण।।
 तो तुम भी जानो अपने को।
              तो निश्चित ही भगवान बनो।।60।।

 जिनशासन है अनमोल रत्न ,।
                 भगवान आत्मा परम रत्न ।।
रोको तुम अपना चंचल मन।।
                 तो तुमने पाओगे चिदानंद।।61।।

तुम आनंद अमृत पाओगे।
             तुम आनंद का घर पाओगे।।
 वे आनंद ही है सुखकारी।
            भगवान आत्मा सुखकारी।।62।।

भगवान आत्मा मैं ही हूं।
            आनंदकारी भी मैं ही हूं।।
जल्दी जानू मैं अपने को।
             अब मोक्षमार्ग में देरी क्यों?।।63।।


यहां प्रश्न करेगा अनुयायी।
          संसारमार्ग है सुखकारी।।
 संसार में केवल सुख ही है।
        और मोक्षगति में कुछ नही है ?।।64।।

ज्ञानी गुरु उसको कहते है।
              संसार में केवल दुख ही है।।
संसार में किंचित सुख होता ।
              तो ज्ञानी जन इसमें रहते।।65।।

संसार मार्ग है दुखकारी।
            संसार मार्ग है अपकारी।।
संसार मार्ग है दुख ही दुख ।
         और मोखमार्ग में सुख ही सुख।।66।।

तुम धारण  करो निर्ग्रंथ मार्ग।
               भगवान आत्मा एक सार।
तुम जल्दी बनो भगवान आप्त ।
             और जाओ जल्दी मोक्षधाम।।67।।

तुममें शक्ति अनंत अपार ।
           खुद को जानो तो एक बार।।
बस एक बार बस एकबार।
          खुद को जानो तो एक बार।।68।।


सच में अपने में सुख ही है।
          पर में तो केवल दुख ही है।।
पर में अपनापन क्यों करते।
          खुद को क्यों नहीं परख सकते।।69।।


भगवान बने है नंत जीव।
               आगे भी बनते जाएंगे।।
तुमको यह सुंदर मार्ग मिला।
                 तब भी अज्ञानी रह जाते।।70।।


इतने सुंदर संयोगो में।
         अच्छे से तुम निजध्यान करो।।
अच्छे से तुम अध्यन करो ।
         बस पढ़ो पढ़ो बस मनन करो।71।।



बस रमो रमो  बस रमो रमो।
            निज आतामा में ही जमो  जमो ।।
कर्मो का तुम बस हनन करो।
            अध्यन करो चिंतवन करो।।72।।

  जिनवाणी का तुम मनन करो।
                जिनगुरूओं की तुम विनय करो।।
 जिनशासन में श्रद्धा करके ।
             कर्मो का तुम बस वमन करो।।73।।


संयोगों में सुख भोगेेगे ।
               तो भवों भवों में रोओगे।।
अपने में ही सुख भोगोगे।
                तो भवों भवों को तोड़ोगे।।73।।



जिनशासन धर्म निराला है ।
          जिनशासन सबका प्यारा है।।
हम गर्व करे अपने उप्पर।
          जिनशासन पंथ हमारा है।।74।।

हमको जिनशासन धर्म मिला।
            हमको अच्छा संयोग मिला।।
 सम्यक्त्व प्रगट करने का मोका।
            पूरे जग में  हमे मिला।।75।।

हम नही गवांए यह अवसर।
           अब नही गवाएं यह अवसर।।
अब नही मिलेगा यह अवसर।
           पूरे जग में बस भ्रमण भ्रमण।76।।

भव भ्रमण भ्रमण करते रहना।
              पर का बोझा ढोते रहना।।
पर में अपनापन करते हो ।
               तो नरकादिक में मरते हो।।77।।
               
       

यह सब दुख तुमको क्यू मिलते।
                  क्यूंकि तुम पर में ही रमते ।। 
जिनवाणी को तुम त्यागोगे।
                  तो दुखसागर में रोओगे ।।78।।



मुनिराजो ने तो पग पग पर।
            तुमको समझाया बहुत बार।।
लेकिन तुम समझे नही भाई।
             तो  सर्वज्ञों का क्या कहना।।79।।


क्रमनियमित पर्याय समझो।
               जिनसिद्धांतो को तुम समझो।।
जिनवाणी को तुम अब धारो।
               निर्ग्रंथ धरम अब अपनाओ।।80

तुम मोक्षमार्ग को अपनाओ।
      तुम मोक्षमार्ग को समझाओ।।
तुम तीर्थंकर होकर भाई।
      पूरे जग को बस समझाओ।।81।।

 दिव्यध्यनी निकली पर से ।
             लेकिन जीवों को सुखकारी।।
जीवों को धर्म सुनाती है।
          वे अरहंत ही है उपकारी।।82।।

तुम हिंसा हिंसा करते हो ।
       तुम राग द्वेष में मरते हो।।
तुम राग द्वेष को धारण कर।
       अपने आतम को छलते हो।।83।।

तुम अपने को तो क्यों छलते।
        और पर को भी तुम क्यों छलते।।
तुमको लज्जा क्यू नही आती।
        तुम जिनशासन को क्यों छलते।।84।।


तुम जिनशासन को क्यों छलते।
            अपनेपन को तुम क्यों छलते।।
टोडरमल जी कहते रहते।
            जिनआज्ञा भंग नही करना।। 85

अपने आतम में आजाओ।
            तुम समयसार को अपनाओ ।।
 तुम अपने में अपनापन कर।
            अपनेपन का सदुपयोग कर।।86।।


 यह अवसर तुमको बहुत मिले।
             लेकिन तुमने नही ध्यान दिया।।
अब तो सुनकर ध्यावो भाई।
              जल्दी जल्दी आओ भाई।।87।।



तुम चेतन राजा हो भाई।
              फिर भी तुम भटके क्यो भाई।।
तुममें है सक्ति अनंत ढेर।
              नही बाहर खोजो मेरे शेर।।88।।


जिनवाणी तुमको कहती भव्य।
           जिनगुरु भी तुमको कहते भव्य।।
एक बात मानो भाई।
           जिनशासन ही है उपकारी।।89।।

हम जिनशासन के परम भक्त।
         हम जिनगुरूओ के परम भक्त।।
हम जिनवाणी के परम भक्त।
         जिनदेवों के हम सच्चे भक्त।।90।।


मुरखता जग में भरी हुई ।
            अज्ञानता जग में भरी हुई।।
तुम कुछ भी मत देखो भाई।
             अपना आतम देखो भाई।।91।।

अब काललब्धि आ गई हमरी।
               जग को छोड़न की है बारी।।
उनको ही आतम राम मिला।
                जिसने खुद है पहचाना।।92।।


संयोग वियोग आते रहते ।
         इसमें अटको भटको मत तुम।।
संपूर्ण जग एक मेला है।
          हम सबका यही झमेला है।।93।।


तुमने रूचिता पर दिया ध्यान।
           तुमने जिनवाणी सुनी आज।।
तुम निश्चित हो भवत्व जीव।
           इसमें नही शंका कभी नहीं।।94।।


जिसके माथे पर जिनवाणी ।
           जिसके रक्तो में जिनवाणी।।
वह जीव सदा ही सुख पाता।
            दुख उसके पास  नही आता।।95।।


बस इतना ही हमको कहना ।
            सर्वज्ञाें का भी यही कहना।।
जिनवाणी का भी यही कहना ।
            मुनिराजों का भी यही कहना।।96।।


तुम अनंत चतुष्य प्रगट करो।
               भगवान आत्मा प्रगट करो।।
तुम स्वर्ण आत्मा को धारो।
              तुम स्वर्ण शतक को पहचानो।।97।


तुम मोक्षमार्ग को पहचानो।
                 जल्दी जल्दी धारो धारो।।
निर्ग्रंथ धरम को अपनाओ।
                  भगवान आत्मा संवारो।98।।


बस इतना ही मुझको कहना।
              जिनशासन ही मेरा गहना।।
सब करें जीव अपना कल्याण।
              बस इतना ही मेरा कहना।।99।।


संपूर्ण धर्म का एक सार ।
           सर्वज्ञोंं की बस एक बात।।
जिनवाणी की भी एक बात।
            जग को मारो तुम एक लात।।100।।


जग से भिन्नत्व है मम स्वभाव ।
                बस चिदानंद मेरा स्वभाव।।
 भगवान आत्मा परम सुखी।
            जो उसको जाने वही सुखी।।101।।



                      ।   सभी को जयजीनेद्र।  
     

Thursday 3 June 2021

🌟 Misconception of E: = mc² in Jain philosophy.✨



                                  । जिनेंद्र भगवान की जय हो ।            

According to Jain doctrine, the universe and its constituents—soul, matter, space, time, and principles of motion—have always existed. Jainism does not support belief in a creator deity. All the constituents and actions are governed by universal natural laws. It is not possible to create matter out of nothing and hence the sum total of matter in the universe remains the same (similar to law of conservation of mass). Jain texts claim that the universe consists of jiva (life force or souls) and ajiva (lifeless objects). The soul of each living being is unique and uncreated and has existed during beginningless time.

The Jain theory of causation holds that a cause and its effect are always identical in nature and hence a conscious and immaterial entity like God cannot create a material entity like the universe. Furthermore, according to the Jain concept of divinity, any soul who destroys its karmas and desires achieves liberation (nirvana). A soul who destroys all its passions and desires has no desire to interfere in the working of the universe. Moral rewards and sufferings are not the work of a divine being, but a result of an innate moral order in the cosmos: a self-regulating mechanism whereby the individual reaps the fruits of his own actions through the workings of the karmas.
Through the ages, Jain philosophers have rejected and opposed the concept of any omnipotent creator god, and this has resulted in Jainism being labeled as nastika darsana, or an atheist philosophy by the rival religious philosophies. The theme of non-creationism and absence of omnipotent God and divine grace runs strongly in all the philosophical dimensions of Jainism, including its cosmology, karma, moksa and its moral code of conduct. Jainism asserts a religious and virtuous life is possible without the idea of a creator god.



E: = mc² is a famous equation that has been established by the great scientist Einstein, and it is related to the special theory of relativity.

The special theory of relativity is established on two main postulates, as follows:
1. Velocity of any physical particle or object always remains less than the light-velocity.

2. The velocity of light, i.e. photons is constant. It means that the velocity of source of light never affects its light-velocity. 
And according to the second postulate in the equation E = mc².


E denotes total energy. M denotes mass of object, and is the light-velocity that is accepted as constant. Generally, all, who have not properly studied physics or special theory of relativity know that (1) mass and energy are interchangeable, (2) energy of object or particle is equivalent to its mass multiplied by the speed of light squared. 

In reality 'in' in the equation E=mc. does not denote rest-mass, but it denotes the mass of particle or object with the velocity 'v' and therefore m is a variable for the same object according to its velocity. As velocity increases, m increases and therefore E increases. If the velocity of a particle becomes approximately equal to light-velocity, m tends to be infinite. It means that the energy of a substance or particle is not constant.
        
                                                E: = mc² 
                                   kinetic  energy 


In the equation E me, me denotes the sum of rest energy me, and its Kinetic energy, and it is denoted as E-me-me+ K.E Here in cis constant for the same object or particle, while K. E. (kinetic energy) is variable according to its velocity. So it is a misunderstanding that mass and energy are interchangeable and energy of the substance with the same mass is constant.

Though in practice, any sub-atomic particle never obtains velocity equal to light-velocity". E me K.E. says us that even th smallest particle of a matter may possess infinite energy and jain 49 philosophy also denotes that even the atom (paramāņu) which is completely indivisible at a given time by any instrument, has also infinite energy.
    

Jain philosophy tells us that light is not an energy-packet but is made up of tiny material particles and its velocity is not constant, it is variable, if the velocity of source of light is greater than light velocity. According to Jain philosophy a particle may obtain velocity greater than light-velocity. Thus though the postulates of Einstein and the concepts of philosophical tradition of Jainism, which are absolutely true, are contradictory to each other, they come to same results

     
                    The summary of (अष्टाधायी)


Nearly twenty six hundread years ago Acharya Panini had composed a book of grammar of Sanskrit language namely' (अष्टाधायी) are written in aphoristic style (सूत्रशैली) .

 The book has covered the whole grammar of Sanskrit language in approximately four thousand aphorisms (सूत्र) (in short sen tences).

 As it is believed, in almost hundred or hundred and fifty years after Acharya Panini, Acharya Kartikeya has written ( वार्तिक) (explicit explanations) on these aphorisms  (सूत्रs). 

In these Vartikas delib erations have been done on these aphorisms. After another hundred or hundred and fifty years on the base of those aphorisms and Vartikas, Patanjali has composed a भाष्य ग्रंथ (a book of explanation) named . The subject-matter of the present lesson has been chosen from this महाभाष्य  Famous by the name of (महाभाष्य) this book of Acharya Patanjali is seemingly a book of grammar,even then during its certain incidents various principles of social, political and economical as well as those of physical science like astrology and geography have also been referred.
 These references indicate the extensiveness of the knowledge and science of that age. In this present lesson the discussion over Panini's aphorism  (सूत्र ): (1.1, 49) has shown how the suggestions have been made regarding the consent given to these principles in respect of the relations of the mutual behaviour of human beings, gravitation as well as that of the fire on the land incorporating with the Sun. This method of subjects of various scriptures in the book, discussing the  grammar of language, provides inspiration to become an expert in multiple scriptures. A student, leaming any one scripture should have the knowledge of the principles of various scriptures. Here this lesson is selected to provide inspiration for such skill.
       
                           Important knowledge

   The principles of gravity have been given in Indian scriptures since ancient years. But they have been spiritually written by great sages and great saints of other philosophies.
  In these great texts, Panini Muni has also written in Ashtadhayi. And if you consider, Jain sages have also written the principles of science thousands of years ago in many theory texts.
 We are not making this blog to condemn science, but great saints have given their information in Jain and Indian scriptures, just doing a critical study of it. 



   The great scientist Albert Einstein studied gravitation and Newton's theories a lot and he He also spread his principles a lot.

   The great  grammaian Panini muni sayed in fact on forece in ashtadhyai : 
        
In this world there are various types of things. For example: metals such as gold, iron, etc.: trees like banyan, fet, etc. and beasts like cows, horses, etc. Among these again every object is different. For example: gold is different from iron. And every single piece of gold is different from the other in shape and kind (quality).

In fact, it experienced that these objects are different from one another in the form of existence or being. But actually even in the objects that are different from one another there is some sort of natural close relation also. When the respective objects of different types are used in some action. ascertainment of this (similarity) takes place. The mention of this principle is made before twenty two hundred years by the great preceptor ( पतंजलि)  in his own (treatise named) . There he narrates :-
     
When one is told. Sit in the assemblies, gatherings and among the people having same kind of food, the thin persons do not sit with the thin nor do the whites sit with the whites. They sit with only those who have close relation of some kind with purpose. That is to say people invited for lunch in social life are different in shape (or size) and types. But when they proceed for lunch, they sit close to one another seeing their own inner resemblance. A man who is thin in shape does not sit with the other thin person, nor does a fat one sit with the other fat person. But among whom there is some sort of resemblance caused by purpose or occasion. following that resemblance only those sit close to one another. The members of the family of maternal uncle sit with other members of the maternal uncle, the paternal uncles with other paternal uncles, neighbours with the other neighbours.


  Exactly in the same way the beasts such as cows, etc. also behave. Having grazed during the daytime the cows gathering in the stables in the evening sleep. each one with her calf.

This rule is seen in the inanimate objects also like that of the beasts such as cows, etc. For example: a lump of clay when thrown having gone speedily does not go obliquely, nor does it climb upward. Being the modification of the earth, it comes back to the earth on account of its resemblance. Similarly the flame of the fire which is the modification of the sun lit well in the place where there is no wind does not go in horizontal direction, nor does it go down. Being the modification of the sun it goes (upward t.e..) towards the sun only, due to close relation.
In this way here the composer of महाभाष्य is
instructing the principle of the practical human life and along with it he is also indicating the theory of gravitation (of the earth) and of the relation of fire on the earth with the sun.  
     
                                       refrences books

Dundas, Paul; John Hinnels ed. (2002). The Jains. London: Routledge. ISBN 0-415-26606-8.
Gopani, A. S.; Surendra Bothara ed. (1989). Yogaśāstra (Sanskrit) of Ācārya Hemacandra. Jaipur: Prakrit Bharti Academy.

Jacobi, Hermann (1884). "Ācāranga Sūtra, Jain Sutras Part I". Sacred Books of the East, Vol. 22.
James, Edwin Oliver (1969). Creation and Cosmology: A Historical and Comparative Inquiry. Netherlands: Brill Publishers. ISBN 90-04-01617.

Kuhn, Hermann (2001). Karma, The Mechanism : Create Your Own Fate. Wunstorf, Germany: Crosswind Publishing. ISBN 3-9806211-4-6.
Nayanar, Prof. A. Chakravarti (2005). 

Pañcāstikāyasāra of Ācārya Kundakunda. New Delhi: Today & Tomorrows Printer and Publisher. ISBN 81-7019-436-9.

Nayanar, Prof. A. Chakravarti (2005). Samayasāra of Ācārya Kundakunda. New Delhi: Today & Tomorrows Printer and Publisher. ISBN 81-7019-364-8.

Stevenson, M.Sinclair (1999). Heart of Jainism. Munshiram Manoharial Publishers Private, Limited. ISBN 81-215-0122-9.
Thrower, James (1980). Alternative Tradition: religion and the rejection of religion in the Ancient World. Berlin: Walter de Gruyter. ISBN 90-279-7997-9.

Vallely, Anne (2002). Guardians of the Transcendent: An Ethnography of a Jain Ascetic Community. Toronto: University of Toronto Press. ISBN 0-8020-8415-X.

Zydenbos, Rober J. (2006). Jainism Today and Its Future. Manya Verlag: Muenchen.
Jaini, Padmanabh (1998). The Jaina Path of Purification. New Delhi: Motilal Banarsidass. ISBN 81-208-1578-5.

Panini muni ashtadhyai
Holistic Science and Human Values (Quarterly, Feb. 1989, Vol-1. No. 1. page 6, column 1)

*Special theory of Relativity, Mass-Energy Equivalance.

**Beta (B) particles are able to obtain maximum velocity equal to. .99c.
   
 Ancient jain mathematicinas , dr rc gupta.
  जैन दर्शन एवं गणित , dr anupam jain
Contribution of jain scholars in mathematics 
Philosopher mathematicians
 लोएविभाग,  आचार्य सर्वनंदी
जैन दर्शन गणित , महावीर आचार्य 
 पतंजलि महाभाष्य

 हम सब भी इन सिद्धांतों को समझ कर अध्यात्मवाद , अहिंसावाद, अनेकांतवाद, स्यादवाद को समझकर जीवन में  जैन धर्म के प्रति दृढ़ श्रद्धावान हों।

              सर्वज्ञ शासन जयवंत वर्ते।
                         निर्ग्रंथ शासन जयवंत वर्ते।।
              यही भाव अविछिन्न रहता है मन में ।
                          सर्वज्ञ शासन जयवंत वर्ते।।












Sunday 30 May 2021

क्या पाइथागोरस जैन थे?🤔🤔🤔




                                               पाइथागोरस


                    पंच परमेष्ठी भगवंतो की जय हो ।

                
                    एक झलक जैन संस्कृति की और

जैन धर्म एक महान एवं सर्वोत्कृष्ट धर्म है ।  इस धर्म में अनेकों सिद्धांत जीवन में उपयोगदायक है।

एन्साइक्लोपीडिया ऑफ वर्ल्ड रिलीजन्स (Encyclopaedia of World Religions) के विश्वविश्रुत लेखक श्री कीथ के अनुसार, बेरिंग जलडमरूमध्य से लेकर ग्रीनलैण्ड तक सारे उत्तरी ध्रुव सागर के तटवर्ती क्षेत्रो में कोई ऐसा स्थान नहीं है जहा प्राचीन श्रमण संस्कृति ( जैन संस्कृति) के अवशेष न मिलते हो।

"I am no apostle of new doctrines" said Muhammad "neither know I what will be done with me or you". Koran, XLVI (पैगंबर हजरत मुहम्मद)

डॉ. रामधारी सिंह दिनकर के अनुसार, "यह मानना युक्तियुक्त है कि श्रमण संस्था भारत मे आर्यों के आगमन से पूर्व विद्यमान थी और वैदिक धर्मानुयायी ब्राह्मण इस संस्था को हेय समझते थे।"



जैन धर्म प्राचीनता से ही अनेकों लोगो को प्रभावित करता आया है। चाहे वह कितना भी विरोधी, क्रोधी, मानी ,वाला जीव ही क्यों न हो। 
अनेकों राजा महाराजा , मुस्लिम वंश एवं विदेशो में भी जैन धर्म बहुत प्रसिद्ध था । अनेको लोग इसका सम्मान एवं आदर करते थे।    उनमें से एक महान हस्ती भी जिसका नाम है :- पाइथागोरस ।
  

                      Pythagorus Theorems

पाइथागोरस का नाम सबने सुना ही होगा। वर्तमान में गणित की पुस्तकों में भी इसके Theorems पढ़ाए जाते है ।


             पाइथागोरस का संक्षिप्त जीवन परिचय

पहला नाम:       =       पाइथागोरस (पाइथागोरस)
जन्म तिथि:       =      570 ई.पू. ई।
आयु:                =     80 साल
मृत्यु की तिथि:  =   490 ई.पू. ई।
व्यवसाय:          = दार्शनिक, गणितज्ञ, रहस्यवादी
वैवाहिक स्थिति: =  शादी हो चुकी थी ।
उनके जीवन में  अनेकों घटनाएं घटी थी।।
वह ग्रीक के रहने वाले थे।

          क्या पाइथागोरस जैन धर्म से प्रभावित थे ।

जैन धर्म ने  पाइथागोरस या पाइथागोरसवाद को निश्चित रूप से प्रभावित किया होगा।

एक बात के लिए, पाइथागोरस का जन्म लगभग 570 ईसा पूर्व या उसके आसपास हुआ था और उनकी मृत्यु लगभग 490 ईसा पूर्व या उसके आसपास हुई थी; जबकि, उस समय विकास में शायद कुछ अस्पष्ट रूप से जैन धर्म से मिलता-जुलता था, जैन धर्म शायद किसी भी रूप में मौजूद नहीं था जिसे हम उस समय आज पहचानेंगे।

पाइथागोरस की मृत्यु के लगभग तीन शताब्दी बाद, जैन धर्म का सबसे पहला शिलालेख ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी से मिलता है। जैन धर्म में सबसे पुराना और सबसे महत्वपूर्ण पवित्र ग्रंथ शंखगामा, पहली शताब्दी ईस्वी के अंत तक भी शुरू नहीं हुआ था, लगभग उसी समय जब ईसाई सुसमाचार लिखे गए थे, और दूसरी शताब्दी ईस्वी के मध्य तक पूरा नहीं हुआ था।

आचार्य कुंदकुंद, सबसे प्रतिष्ठित जैन आध्यात्मिक नेता, जो यहूदी धर्म के भीतर मूसा की स्थिति या ईसाई धर्म के भीतर यीशु की तुलना में जैन धर्म के भीतर एक बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान पर हैं, पहली शताब्दी ईसा पूर्व में बहुत जल्द और आठवीं शताब्दी ईस्वी में रहते थे। 

यह पूछना कि जैन धर्म ने पाइथागोरस को कैसे प्रभावित किया, यह पूछने जैसा है कि ईसाई धर्म ने पाइथागोरस को कैसे प्रभावित किया; काफी सरलता से, धर्म उस समय वास्तव में विकसित नहीं हुआ था जब पाइथागोरस किसी भी रूप में जीवित था जिसे आज हम तुरंत पहचान लेंगे। सच कहूँ तो, पारंपरिक बहुदेववादी धर्म भी, जो उस समय भारत में कई लोगों द्वारा प्रचलित था जब पाइथागोरस जीवित था, जिसे हम "प्रोटो-हिंदू धर्म" कह सकते हैं, आज भारत में प्रचलित हिंदू धर्म से काफी अलग था।

हालाँकि, एक और कारण है कि यह अत्यधिक संभावना नहीं है कि पाइथागोरस पर जैन धर्म का बहुत अधिक प्रभाव था और ऐसा इसलिए है, जबकि कुछ स्रोतों का दावा है कि पाइथागोरस ने भारत की यात्रा की और वहां अध्ययन किया, ये स्रोत कई सदियों बाद लिखे गए थे। पाइथागोरस की मृत्यु और व्यापक रूप से अविश्वसनीय माना जाता है। हालाँकि कई प्रारंभिक स्रोतों में पाइथागोरस के मिस्र में अध्ययन का उल्लेख है, पाइथागोरस के जीवन के शुरुआती स्रोतों में से किसी ने भी पाइथागोरस के सुदूर पूर्व की यात्रा के बारे में कुछ भी उल्लेख नहीं किया है।


पाइथागोरस के समय के प्राचीन यूनानियों को भारत के बारे में बहुत कम-वास्तव में, लगभग कुछ भी नहीं पता था। पाइथागोरस के समय के यूनानियों को पता था कि भारत का अस्तित्व है, लेकिन, उनके लिए, यह एक अजीब, दूर की, रहस्यमय भूमि थी जो विचित्र चमत्कारों और अद्भुत प्राणियों से भरी थी। ग्रीस से लगभग कोई भी वहां कभी नहीं गया था और लगभग सभी यूनानियों को इसके बारे में पता था कि यात्रियों की दूसरी या तीसरी हाथ की कहानियों से आया था।

इस अवधि के यूनानियों ने भारत के बारे में कितनी गलत जानकारी दी, इसका अंदाजा लगाने के लिए, ग्रीक लेखक केटेसियास, जो पांचवीं शताब्दी ईसा पूर्व में पाइथागोरस के बाद कम से कम एक पीढ़ी तक जीवित रहे, ने अपनी पुस्तक द इंडिका में लिखा कि एक अजीब लोग रहते थे जिन्हें जाना जाता था स्कीपोड्स ("छाया-पैर") जिनके शरीर के केंद्रों में केवल एक पैर था। उन्होंने लिखा कि, इस पैर के अंत में एक विशाल पैर था। उन्होंने दावा किया कि स्कीपोड अपने सिर के ऊपर हवा में उठाए गए इस पैर के साथ सूर्य से खुद को छाया करने के लिए बैठेंगे (इसलिए उनका नाम)।

ऊपर: नूर्नबर्ग क्रॉनिकल से एक स्कीपोड का मध्यकालीन वुडकट, 1493 का है

लगभग कोई रास्ता नहीं है पाइथागोरस को प्रोटो-जैन धर्म के बारे में भी पता चल सकता था, बिना पूरे भारत की यात्रा किए। ग्रीक पुरातन काल के अंत में भारत की यात्रा करने वाला एक यूनानी व्यक्ति अत्यंत कठिन रहा होगा। ऐसा माना जाता है कि खुद केटेसिया भी, जिन्होंने सचमुच भारत के बारे में एक पूरी किताब लिखी थी, शायद केवल फारस की यात्रा की थी और भारत के बारे में कहानियों के आधार पर भारत के बारे में लिखा था जो उन्होंने फारसियों से सुनी थी। यह वास्तव में हेलेनिस्टिक काल (सी। 323 - सी। 31 ईसा पूर्व) तक नहीं था, सिकंदर महान द्वारा मध्य पूर्व की विजय के बाद, ग्रीस और भारत के बीच संपर्क महत्वपूर्ण हो गया था।

यह ध्यान देने योग्य है कि, भले ही पाइथागोरस और पाइथागोरसवाद से जुड़े कई विचार हिंदू धर्म, जैन धर्म और विभिन्न अन्य पूर्वी धर्मों से जुड़े विचारों के समान हैं, इनमें से कई विचार वास्तव में पाइथागोरस से बहुत पहले ग्रीस में प्रचलित थे और प्रतीत होते हैं ग्रीस और भारत दोनों में स्वतंत्र रूप से विकसित हुआ। उदाहरण के लिए, पाइथागोरस की मेटामसाइकोसिस, या पुनर्जन्म की शिक्षा, पहले छठी शताब्दी ईसा पूर्व ग्रीक ऋषि फेरेकाइड्स ऑफ साइरोस द्वारा सिखाई गई थी, इसलिए पाइथागोरस को पुनर्जन्म के बारे में सुनने के लिए भारत जाने की कोई आवश्यकता नहीं थी।

ऊपर: रोम में कैपिटोलिन संग्रहालय से पाइथागोरस की संगमरमर की कल्पनाशील मूर्ति। (कोई नहीं जानता कि पाइथागोरस वास्तव में कैसा दिखता था।)

पाइथागोरस जैन न होते हुए भी जैन थे । वे कल्याण मुनि से बहुत कुछ सीखे थे । उन्हें जैन सिद्धांत अत्यंत प्रिय थे।  इतिहास में कहा भी गया है की वे रात्रि में भोजन नहीं करते थे। व्रत भी रखते थे। मुनिराजो का उपदेश भी सुनते थे।

पाइथागोरस महान यूनानी दार्शनिकों में से एक है।
पाइथागोरस पश्चिम में सभी रहस्यवाद का स्रोत या स्रोत है।

महत्व के क्रम में तीन चीजें उनके रहस्यवाद का आधार बनती हैं।

1. उन्होंने मिस्र में रहस्यवाद के एक गुप्त गूढ़ विद्यालय में भाग लिया। इस स्कूल में प्रवेश के लिए, उन्हें चालीस दिन के उपवास पर जाना था, एक निश्चित तरीके से लगातार सांस लेना, कुछ बिंदुओं पर एक निश्चित जागरूकता के साथ। वह अपनी शिक्षा के साथ ग्रीस गया और पश्चिम के सबसे महान फकीरों में से एक बन गया।

2. उन्होंने बोगर नामक तमिल ग्रंथ सिद्ध (वहां नाथ परंपरा में बोगा नाथ कहा जाता है) से यंत्र (ज्यामितीय) डिजाइन सीखे।

        एक प्रमाण यह भी इतिहास में मिलता है।
3. उन्होंने आज के बिहार में पंचाने नदी के तट पर मधुमक्खी के छत्ते के ज्यामितीय डिजाइन में महावीर वर्धमान के अंतिम उपदेश के स्थान पर भी भाग लिया।

Pythagoras of Samos (c. 570 – c. 495 BC) was an Ionian Greek philosopher and the eponymous founder of the Pythagoreanism movement. His political and religious teachings were well known in Magna Graecia and influenced the philosophies of Plato, Aristotle, and, through them, Western philosophy. He is believed to have traveled to India (approx 550 BC) to attend Jain Tirthankar Mahaveer's Samosaran (Samavasaran) at the banks of River Rijuvaluka (ancient river) near town of Pawapuri. Pythagorus was vegetarian, he believed in ahimsa, reincarnation, talked about his previous lives, believed in Soul that can be purified through penance. Its believed that he received this knowledge from omniscient Lord Mahaveer.

During 325BC, when Alexandar came to india, one of Jain Muni Kolonos (Kalyan Muni) went to Greece with him. There are statues of Kolonos in Greece.

                ग्रीक के समीनतम देशों में जैन धर्म

          फिनलैण्ड, एस्टोनिया, लटविया एवं लिथुआनिया

इन देशों के इतिहासकारो और बुद्धिजीवियों की खोजों के अनुसार उनकी संस्कृति का स्रोत भारत था और उनके पूर्वज भारत से जाकर वहां बसे थे जिनमे जैन श्रमण एव जैन पणि व्यापारी आदि बड़ी संख्या में थे। उनके यहां संस्कृत एवं ऋग्वेद की बातें भी प्रचलित थी। उनके यहां सती प्रथा भी थी। वस्तुतः उनके पूर्वज गंगा के इलको से जाकर वहां बसे थे। लटविया के प्रमुख लेखक पादरी मलबरगीस ने 1856 में लिखा है कि लटविया, एस्टोनियां, लिथुएनियां और फिनलैण्ड वासियों के पूर्वज भारत से जाकर वहां बस गये थे। इनमें अधिकांश पणि व्यापारी थे जो जैनधर्मावलम्बी थे। 


इनकी भाषाओं और भारत की प्राचीन भाषाओं में बड़ा साम्य है इतिहास काल में इनका भारत से निरन्तर व्यापारिक सम्बन्ध बना रहा। उस काल में हिमालय पर्वत की इतनी ऊंचाई नहीं थी और वह केवल निचला पठार था। सुदूर उत्तरी ध्रुव तक भारत से सार्थवाहों, रथों काफिलों आदि का निरन्तर गमनागमन होता था।
 
कालान्तर में राजनैतिक उथल-पुथल के कारण पणि व्यापार साम्राज्य तो छिन्न-भिन्न हो गया किन्तु सांस्कृतिक स्थिति अपरिवर्तित बनी रही। वर्तमान फिनलैंड क्षेत्र में बसी पणि जाति के कारण इस क्षेत्र का नाम पणिलैंड (फिनलैंड) पडा प्रतीत होता है। इस लोगों ने सत्रहवी शताब्दी तक अपनी मूल संस्कृति को कायम रखा तथा सत्रहवी शताब्दी में ही फिनलैंड में ईसाई धर्म का प्रसार हुआ।

ग्रीक के साहित्यों में तो भगवान ऋषभदेव का भी वर्णन मिलता है ।

 इस प्रकार पाइथागोरस महान एवं दार्शनिक विद्वान थे। 

मुनि श्री 108 विद्यानंद मुनि ने तो अपनी शोध  प्रबंध से पाइथागोरस को नग्न दिगंबर मुनि साबित किया है । की पाइथागोरस ने ग्रीक में श्रमण संस्कृति को अपनाया था।

इस प्रकार पाइथागोरस ने अपने जीवन  शोध संधान में  दिगंबर महावीराचार्य  का गणित सार संग्रह का भी उपयोग किया था।

 
                 पार्श्वनाथ और पाइथागोरस की परम्परा
 
पार्श्वनाथ की परम्परा के पिहितास्रव के सम्बन्ध मे एक यह "भी मान्यता है कि वे ग्रीस की ओर गये थे और ग्रीस मे जो पाइथा गोरस का सम्प्रदाय है वह पार्श्वनाथ की परम्परा के पिहितास्रव से सम्बन्धित है। यह भी सत्य है पाइथागोरस की मान्यताओं के संबध मे आज जो सूचनायें उपलब्ध हैं, उनसे स्पष्ट रूप से ऐसा लगता है कि वे भारतीय श्रमण परंपरा और उसमे भी निर्ग्रन्थ परम्परा के अधिक निकट है | 

 तुलनात्मक दृष्टि से हम कुछ विवरण प्रस्तुत कर रहे हैं। सर्वप्रथम पाइथागोरस हिंसा का उतना ही विरोधी था जितने श्रमण परम्परा के धर्म। उसके अनुयाइयो के लिए  मांसाहार सर्वथा वर्जित था। इसी प्रकार पाइथागोरस आत्मालोचन की प्रक्रिया पर उतना ही वल देता था जितना कि जैन परम्परा मे प्रतिक्रमण पर दिया जाता है। फिर भी पिहितास्रव और पाइथागोरस को अन्य साक्ष्यों के अभाव मे मात्र विचार साम्य के आधार पर एक मान लेना उचित नही होगा। इस सम्बन्ध मे गम्भीर शोध अपेक्षित है। 
                                             ( dr sagarmal jain)


पाइथागोरस की संस्था (Society) मुख्य रूप से किसी दर्शन विशेष की पीठ ( School) नहीं थी। वास्तव मे वह एक प्रकार  का नैतिक धर्म और धार्मिक संघ (order) था । उनमे दो सिद्धान्त प्रमुख थे। पहला आत्मा के पुनर्जन्म का सिद्धान्त और दूसरा भवचक्र अथवा कर्मवाद का सिद्धांत | 

   आत्मा की अमरता मे पाइथेगोरस का अटूट विश्वास था। 

प्राक्तन कर्मों से यह जीवन बना है और इस जीवन मे कर्म भविष्य के जीवन का निर्माण करेंगे। ससार जन्म-मरण का चक्र है और मानव जीवन की सार्थकता इसी मे है कि वह अपने कर्तव्यो द्वारा इस भवचक्र से मुक्ति प्राप्त करे ।

पाइथेगोरस के नैतिक विचार पर्याप्त कठोर है। उसने अपने संघ के सदस्यों के जीवन मे त्याग, तपस्या और संयम पर विशेष ध्यान दिया। मांस खाना बिलकुल ही वर्जित था । यहाँ तक कि मटर, सेम और लोबिया की फलियो के खाने की भी मनाही थी। विरति, संयम, इन्द्रिय निग्रह और मित्राचार उनके जीवन के मुख्य आचार थे। वे एक विशिष्ट प्रकार का वस्त्र पहनते थे। 

उन्होने बताया कि शरीर आत्मा के लिए एक बन्दी गृह है और हमे उससे मुक्ति का उपाय ढूढना चाहिए। (ग्रीक दर्शन का वैज्ञानिक इतिहास (प्रो० जगदीश सहाय) पृ०५८-५० प्रकाशक किताब मण्डल १९६०)
 जिज्ञासु पाठक इस पुस्तक का अध्यन करके बहुत जानकारी प्राप्त कर सकते है ।


तो इस प्रकारपाइथागोरस को जैन धर्म के सिद्धांत अत्यंत प्रिय थे । एवं जैन श्रमण भी प्रिय थे। 
हम भी जैन धर्म को समझकर अपना कल्याण करे एवम इसे जन जन तक पहुंचाएं।

                 ✨✨सर्वज्ञ शासन जयवंत वर्ते।
                          यही भाव अविछिन्न रहता है मन में 
                सर्वज्ञ शासन जयवंत वर्ते💫💫









👑👑जैन धर्म की प्राचीनता का इतिहास👑👑 भाग 1

                                                                          ।  सिद्ध परमेष्ठि भगवंतो की जय हो ।   ...