Friday 26 November 2021

👑👑जैन धर्म की प्राचीनता का इतिहास👑👑 भाग 1

        
 
             

                                                 ।  सिद्ध परमेष्ठि भगवंतो की जय हो
 



  इतिहास एक विषय है जो इति + ह + आस शब्दों के जोड़ से बना है जिसका अर्थ ‘’ यह निश्चय था’’ है। ग्रीस के लोग इतिहास को “हिस्तरी” यानि History शब्द से पुकारते थे जिसका मतलब “बुनना” था।


भारत की धरती पर प्राचीन काल से प्रचलित अनेकानेक धर्मों में प्राचीनतम धर्म के रूप में माना जाने वाला जैनधर्म है, जो विशेषरूप से जितेन्द्रियता पर आधारित है।



जैनधर्म के प्राचीन मनीषी आचार्यों ने इस धर्म की व्याख्या इस प्रकार की है-‘‘कर्मारातीन् जयतीति जिनः’’, ‘‘जिनो देवता यस्यास्तीति जैनः’’ अर्थात् कर्मरूपी शत्रुओं को जिन्होंने जीत लिया है वे ‘‘जिन’’ कहलाते हैं और जिन को देवता मानने वाले उपासक ‘जैन’ माने गये हैं। इस विस्तृत व्याख्या वाले जैनधर्म के प्रति अनेक विद्वान भी अपनी यह विचारधारा प्रस्तुत करते हैं कि ‘‘जैनधर्म किसी खास जाति या सम्प्रदाय का धर्म नहीं है बल्कि यह अन्तर्राष्ट्रीय, सार्वभौमिक तथा लोकप्रिय धर्म है। जैन तीर्थंकरों की महान आत्माओं ने संसार के राज्यों के जीतने की चिंता नहीं की थी। राज्यों का जीतना कुछ ज्यादा कठिन नहीं है। जैन तीर्थंकरों का ध्येय राज्य जीतने का नहीं, बल्कि स्वयं पर विजय प्राप्त करने का रहा है। यही एक महान ध्येय है और मनुष्य जन्म की सार्थकता इसी में है।’’
       

 लोग 'जैन' को जातिवाचक संज्ञा समझ लेते हैं और वर्तमान में मात्र जैन लोगों को ही जैन धर्म का अनुयायी मान लेते हैं। किंतु वस्तुतः 'जैन' एक धर्म है, जाति नहीं। इसका जाति से कोई संबंध नहीं है। किसी भी जाति का मानव जैन धर्म का पालन कर सकता है। प्राचीन काल में ऐसा अधिकतर होता रहा है। किंतु अब तक के इतिहास में कभी किसी को जबरन जैन धर्मानुयायी नहीं बनाया गया और न इस तरह के विश्वास को पनपने दिया गया। यहाँ जाति का तात्पर्य मात्र ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र से नहीं है बल्कि मनुष्यों के अलावा पशुओं से भी है। तीर्थंकरों के समवशरण (धर्म उपदेश सभा) में उनके सर्वकल्याणकारी प्रवचन सुनने सभी जाति के मनुष्य तो आते ही थे; यहाँ तक कि पशु-पक्षियों के बैठने की भी व्यवस्था थी क्योंकि उनके उपदेश सर्वभाषामयी जनभाषा प्राकृत में होते थे। यद्यपि उस समय देव भाषा संस्कृत में ही उपदेश देने की परंपरा थी किंतु भगवान महावीर ने ऐसा न करके लोक में राष्ट्रभाषा के रूप में प्रचलित जनभाषा प्राकृत में ही उपदेश दिए और उनके उपदेशों पर आधारित सभी मूल-आगम भी प्राकृत भाषा में ही निबद्ध हुए। इस दृष्टि से यह भगवान महावीर की भाषायी क्रांति भी थी।

      


 जैन धर्म अनादि निधन धर्म है। यह धर्म अनादि से संपूर्ण विश्व में था है और रहेगा। लेकिन वर्तमान में कुछ व्यवधारणों के साथ युग जैन धर्म को प्राचीन नही मानता । लेकिन अन्य मतावलंबियों के ग्रंथो में जैन धर्म की प्राचीनता एवं अन्य लोगो ने भी जैन धर्म के बारे में बहुत कहा है इसकी बहुत महिमा गाई है। अतः कुछ प्रमाण हम नीचे देखते है:-


यह बात वेद, पुराण, उपनिषद् तथा भारतीय एवं पाश्चात्त्य विद्वानों के मंतव्यों से सत्य प्रमाणित हो चुकी है कि जैनधर्म अन्य समस्त धर्मों की अपेक्षा प्राचीन है। जैनधर्म अने तेनी प्राचीनता' नामक पुस्तक की प्रस्तावना में पं. श्री अम्बालाल लिखते हैं :-


"स्पष्ट रुपेण बौद्ध धर्म हजार वर्ष पूर्व ही प्रगट हुआ है । यही नहीं, भगवान बुद्ध ने जैन सिद्धान्तों का अनुभव किया था । जैन सिद्धान्तों में प्रतिपादित मार्ग पराकाष्ठा उबकर ( उकताकर) ही उन्होंने मध्यममार्ग प्रचलित किया । वही बौद्ध धर्म के रूप में प्रसारित हुआ । यह तथ्य ऐतिहासिक है ।"


वेदों में कतिपय नाम ऐसे स्पष्ट हैं कि वे जैनधर्म के तीर्थंकरो के नामों की सूचना देते हैं । श्रीमद् भागवतकार ने श्री ऋषभदेव का चरित्र अतीव स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है। उन्हें हिन्दुधर्म के २४ अवतारों में भी स्थान प्रदान किया है। इस से जैनधर्म की प्राचीन परम्परा का स्पष्ट पता चलता है ।

" भगवान महावीर के ११ गणधर और उनके बाद होनेवाले कई धुरंधर जैनाचार्य अधिकतर वैदिक शास्त्रों के विद्वान ब्राह्मण थे । उन्होंने अपनी (वैदिक) ज्ञान की अपूर्णता से असन्तुष्ट होकर जैन धर्म की दीक्षा अंगीकार की थी। संसार के विविधधर्म तो उन-उन मुख्य व्यक्तियों के नाम से विख्यात हुए । गौतम बुद्ध नामक व्यक्ति
से बौद्ध धर्म, ईसामसीह नामक व्यक्ति से ईसाई धर्म, शिव से शैव धर्म, विष्णु से वैष्णव धर्म, हजरत मुहम्मद से इस्लाम धर्म, इसी प्रकार अन्य अनेक धर्म विशिष्ट व्यक्तियों के नाम से प्रसिद्ध हुए। परंतु इस प्रकार जैन धर्म 'ऋषभ' नाम के व्यक्ति या पार्श्व' नाम के व्यक्ति अथवा 'महावीर' नामक व्यक्ति के कारण ऋषभधर्म, पार्श्व धर्म, किंवा महावीर धर्म के रूप में विख्यात नहीं हुआ । वस्तुतः ‘जैन’ –धर्म गुण- निष्पन्न नाम है । "जो राग-द्वेषादि आभ्यंतर शत्रुओं पर विजय प्राप्त करता है वह 'जिन' कहलाता है ।" जिन द्वारा कथित धर्म 'जैन धर्म' कहलाता है, और जैनधर्म की उपासना करनेवाले को जैन कहते हैं ।
जैसे सागर में सब नदियां समा जाती है, वैसे ही जैन धर्म में सभी दर्शनों का समावेश हैं। अन्य विविध दर्शन एक एक नय का आश्रय लेकर प्रवर्तित हुए हैं । जब कि जैन दर्शन सप्तनय द्वारा गुंफित है । जैनदर्शन की सूक्ष्मातिसूक्ष्म कर्मपद्धति, जीवविज्ञान सूक्ष्म तपमीमांसा, नवतत्त्व का सुंदर स्वरुप, स्याद्वाद- अनेकांतवाद की विशिष्टता, अहिंसा-तप की पराकाष्ठा, योग की अद्वितीय साधना तथा व्रतों - महाव्रतों का सूक्ष्मरीति से प्ररूपणा व पालन... आदि की तुलना में आज तक कोई भी दर्शन समर्थ नहीं हो सका है। विश्व के धर्मों में सब प्रकार से यदि कोई धर्म पूर्ण धर्म हैं तो बह जैन धर्म ही है । विश्वशांति का मार्ग प्रदर्शित करने की क्षमता रखनेवाला यदि कोई मार्ग है तो वह जैनधर्म के सिद्धान्तों में ही निर्दिष्ट है।


          जैन धर्म की अतिप्राचीनता में जैनेतर शास्त्र के प्रमाण

जैन धर्म जैनेतरों के प्राचीनतम वेदों और पुराणों से पूर्व भी विद्यमान था, इस बात के निम्न लिखित प्रमाण हैं,


[१] "कैलासे पर्वते रम्ये, वृषभोऽयं जिनेश्वरः । 
चकार स्वावतारं यः, सर्वज्ञः सर्वगः शिवः" ।। १ ।।
                                        ( शिव पुराण) 

अर्थ:-"(केवलज्ञान द्वारा) सर्वव्यापी, कल्याण स्वरूप, सर्वज्ञ इस प्रकार के ऋषभदेव - जिनेश्वर मनोहर कैलास (अष्टापद) पर्वत पर अवतरित हुए । "



[२] "रैवताद्रौ जिनो नेमिर्युगादिर्विमलाचले ।
 ऋषीणामाश्रमादेव, मुक्तिमार्गस्य कारणम्" ||२||
                                        (प्रभासपुराण)

अर्थः- रैवतगिरि (गिरनार) पर नेमिनाथ, और विमलाचल (शत्रुंजय सिद्धगिरि) पर युगादि (आदिनाथ) पधारे। ये गिरिवर ऋषियों के आश्रम होने के कारण मुक्तिमार्ग के हेतु हैं ।"

           नाग पुराण में नेमीनाथ स्वामी को नमस्कार किया है

[३] "अष्टषष्टिषु तीर्थेषु, यात्रायां यत् फलं भवेत् । 
आदिनाथस्य देवस्य स्मरणेनापि तद् भवेत्" ।।७।।
                                            (नाग पुराण)


अर्थ:- ६८ तीर्थों में यात्रा करने से जो फल मिलता है वह फल आदिनाथ- देव का स्मरण करने से भी प्राप्त होता है ।" (श्री ऋषभदेव का दूसरा नाम आदिनाथ भी है ।)
                                             


[अ ४-४-३२-५ ऋग्वेद]
अर्थ:-"जैसे सूर्य किरणों को धारण करता है, वैसे अरिहंत ज्ञान की राशि धारण करते हैं ।"

[5] "मरुदेवी चा नभिश्च भारतते कुलसत्तमः। 
र्शन वर्त्मा वीराना, सुरसुरनामस्क्रुतः। 
नित्यारण कर्ता यो, युगदाऊ प्रथमो जिन: ".. 6 ..
                                            (मनुस्मृति)

अर्थ:- "भरतक्षेत्र में छट्ठे कुलकर मरुदेव और सातवें नाभि हुए । आठवाँ कुलकर नाभि द्वारा मरुदेवी से उत्पन्न विशाल चरणवाला ऋषभ हुआ । वह वीर पुरुषों का मार्गदर्शक, सुरासुर द्वारा प्रणत तथा तीन नीतियों का उपदेशक युग के प्रारम्भ में जिन हुआ।"

"नाहं रामो न मे वांछा, भावेषु च न मे मनः । 
शान्तिमास्थातुमिच्छामि, स्वात्मन्येव जिनोयथा" ।।७।।
                                           (योगवाशिष्ठ)

अर्थ:- "मैं राम नहीं हूँ, मेरी कोई इच्छा नहीं, पदार्थों में मेरा मन नहीं । जिस प्रकार 'जिन' अपने आत्मा में शान्त भाव से स्थिर रहते हैं उसी प्रकार शांत भाव से मैं स्वात्मा में ही रहना चाहता है ।

 
                                      अधूरी इच्छा

"संस्कृत साहित्य का इतिहास तथा विविध ग्रंथों के लेखन कार्य के समय मुझे जैन धर्म, दर्शन, साहित्य और इसके इतिहास के गहन अध्ययन का सौभाग्य प्राप्त हुआ। इन सबके अध्ययन से जैन धर्म के प्रति मेरा काफ़ी लगाव रहा और | प्रभावित रहा हूँ। मेरे द्वारा लिखित अन्य ग्रंथों की तरह जैन धर्म-दर्शन और साहित्य के इतिहास तथा विवेचन से संबंधित स्वतंत्र ग्रंथ लिखने की प्रबल भावना | रही, मन में इसकी पूरी रूपरेखा भी रही; किंतु अन्यान्य-लेखन में व्यस्तता के चलते यह इच्छा अधूरी ही रही।"

(-पद्म भूषण पं० बलदेव उपाध्याय, प्राकृत विद्या : वर्ष 13, अंक 4, पृ० 32)

बुद्ध और महावीर की समकालीनता के आधार पर जैन और बौद्ध धर्म को समान प्राचीन समझा जाए तो यह उचित नहीं है। इससे भी आगे विद्वान जैन दर्शन को बौद्ध दर्शन की शाखा तक कह देते हैं। 


जैसा कि श्री डब्ल्यू. एस. लिले कहते हैं, कि “बौद्ध धर्म अपनी जन्म भूमि में जैन धर्म के रूप में टिका हुआ है। यह निश्चित बात है कि जब भारत वर्ष में बुद्ध धर्म अदृश्य हो गया, जैन धर्म दिखलाई पड़ा था।" इन भ्रामक और असत्य अनुमानों को प्रस्तुत करने वाले विचारक जैन दर्शन ही नहीं वरन् संपूर्ण भारतीय दर्शन के इतिहास से अनभिज्ञ ही हैं। यहाँ तक कि बौद्ध दर्शन के ये पक्षपाती बौद्ध दर्शन का भी परिपूर्ण ज्ञान नहीं रखते। अन्यथा वे ऐसे भ्रामक विचार कभी नहीं रखते, क्योंकि स्वयं बौद्ध दर्शन में भी जैन दर्शन की प्राचीनता के प्रमाण विद्यमान हैं।

 बौद्ध ग्रंथ धम्मपद में विविध स्थानों पर जैन संस्कृति के शब्दों का प्रयोग हुआ है और उनका विवेचन किया गया है। प्रथम अध्याय में ही गाथा 19-20 में श्रामणस्य' शब्द का प्रयोग हुआ है - 'अप्पम्पि चे संहितं भासमानो, धम्मस्य होति अनुधम्मचारी।

रागञ्च दोसञ्च पहाय मोह, सम्मप्य जानों सुविमुत्त चित्तो
अनुपादियानों इधवा दुरं वा स भगवा सामञ्ञस्स होती ॥' 

अर्थात् चाहे अल्पमात्र ही संहिता का भाषण करें, किंतु यदि वह धर्म के अनुसार आचरण करने वाला हो, राग, द्वेष, मोह को त्यागकर अच्छी प्रकार सचेत और अच्छी प्रकार मुक्तचित्त हो, यहाँ और वहाँ बटोरने वाला न हो तो वह श्रमणपन का भागी होता है।

7वें अध्याय में अर्हन्तवग्गो" शब्द आया है, जिसमें कहा गया है कि जहाँ अर्हत व चीतराग रमण करते हैं, वहीं रमणीय भूमि है। इसके अतिरिक्त अनेक स्थानों पर " श्रमणो" शब्द का विवेचन हुआ है

अलङ्कतो चेपि समं चरेय्य, सन्तो दन्तो नियतो ब्रह्मचारी। 
सब्बेसु भूतेसु निधाय दण्डं, सो ब्रह्मणो सो समणो सभिक्खू ॥" अर्थात् अलंकृत रहते भी शान्त, दान्त, नियम तत्पर, ब्रह्मचारी सारे प्राणियों के

प्रति दंडत्यागी है, तो वहीं ब्राह्मण है, वही भ्रमण है, वही भिक्षु है। आगे अध्याय चौदह व उन्नीस में भी श्रमण की विशेषताएँ बतायी गई हैं। अध्याय 19 में जैन तत्त्वमीमांसा में विवेचित एक तत्त्व आस्रव का उल्लेख किया गया है।

अध्याय 26 में अरहंत" शब्द प्रयुक्त हुआ है। आगे प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव (उसभं) शब्द का भी उल्लेख आया है।"


बौद्ध साहित्य में त्रिपिटक में बुद्ध और उनके अनुयायियों के विरोधी के रूप में "निगठ' शब्द का बारम्बार प्रयोग हुआ है। जैन श्रमण को निग्रंथ कहा जाता है। 'निगठ' शब्द निग्रंथ के ही पर्याय रूप में प्रयुक्त हुआ है। इस प्रकार बौद्ध साहित्य से ही स्पष्ट होता है, कि जैन दर्शन बौद्ध दर्शन का महान् प्रतिद्वन्द्वी था, न कि उससे • निकली शाखामात्र। इसके विपरीत प्राचीन जैन सूत्रों में बौद्धों का किंचित भी विवेचन नहीं मिलता तात्पर्य है कि निर्बंध बौद्ध सम्प्रदाय की उपेक्षा तक कर सकते थे अथवा संभव है कि निर्बंध संप्रदाय बौद्ध संप्रदाय के पहले से विद्यमान रहा हो।


इस प्रकार हम देखे की कितने प्रमाण अन्य साहित्यों में भी मिलते है। जो यह प्रमाणित करते है की जैन धर्म सबसे प्राचीन है और इसकी प्राचीनता हम सबका गौरव है अतः हम सब इसका गौरव बढ़ाते रहे ।
   यह भावना निरंतर रखते रहे की:-
 
  💫सर्वज्ञ शासन जयवंत वर्ते
निर्ग्रंथ शासन जयवंत वर्ते
जयवंत वर्ते श्री जिनवाणी
जिनधर्म जिनतीर्थ जयवंत वर्ते

  भाग 2 शीघ्र ही आएगा।
   सभी को जय जिनेन्द्र।































2 comments:

  1. Bahut badhiya hai.
    Isi tarah banate rahiye bhag2ka intajar rahega

    Shreyansh jain

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  2. Aasha krte hai aapki mehnt rang laaye or sadhrmio ko jain dharam ke gaurav ka abhash ho !! Jai jinendra

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👑👑जैन धर्म की प्राचीनता का इतिहास👑👑 भाग 1

                                                                          ।  सिद्ध परमेष्ठि भगवंतो की जय हो ।   ...