Friday, 21 May 2021

✨✨ जैन साहित्य की आवश्यकता एवं व्यापकता 🌟🌟

 





                    जैन साहित्य की आवश्यकता
 
                     पंच परमेष्ठी भगवंतो की जय हो।

जैन साहित्य संस्कृति का उद्वाहक तत्त्व है। संस्कृति के हर कोने को  जैन साहित्य के अन्तस्तल में देखा जा सकता है।
 जैन साहित्य की विविधता और प्राञ्जलता में उसकी संस्कृति को पहचानना कठिन नहीं | जैनाचार्यों ने अपने आपको लौकिक जीवन से समरस बनाये रखा। इसके लिए उन्होंने प्राकृत और अपभ्रंश जैसी लोकभाषाओं किंवा बोलियों को अपनी अभिव्यक्ति का साधन स्वीकार किया। 

आवश्यकता प्रतीत होने पर उन्होंने संस्कृत को भी पूरे मन से अपनाया।

                       राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त

हिन्दी के प्रसिद्ध कवि मैथिलीशरण गुप्त ने एक कविता में लिखा है-
           अंधकार है वहाँ जहाँ आदित्य नहीं है।
          निर्बल है वह देश जहाँ साहित्य नहीं है।।

अर्थ- किसी भी देश का गौरव वहाँ के साहित्य भण्डार से आंका जाता है यह बात कवि की पंक्तियों से स्पष्ट हो रही है।

हमारा भारत देश सदा-सदा से साहित्य का प्रमुख समृद्ध केन्द्र रहा है। यहाँ के ऋषि-मुनियों ने प्राणीमात्र के हित को दृष्टि में रखते हुए समय-समय पर सारगर्भित एवं सर्वजन सुलभ साहित्य की रचना की है।  
सत् साहित्य को पढ़ने से ज्ञान की प्राप्ति होती है और ज्ञान को मनीषियों ने सच्चे प्रकाश की उपमा देकर अज्ञानता को महान् अंधकार के रूप में बताया हैै।

कन्फ्यूशियस ने भी एक जगह लिखा है-

``Ignorance is night of the mind, but a night without moon and stars.
अर्थात् ‘‘अज्ञानता मन की वह अंधेरी रात है, जिसमें न चाँद हैं न तारे’’ ऐसी अंधेरी दुनिया में महापुरुषों द्वारा बताई या लिखी गई बातें ही हमारे लिए प्रकाश देने का कार्य करते हैं। उनके द्वारा लिखी गई एक-एक पंक्ति कभी-कभी महान जीवनदायिनी बन जाती है।
 
जिन शास्त्रनिविषे शृङ्गार भोग कोतूहलादिक पोषि रागभावका  और हिसा- युद्धादिक पोषि द्वेषभावका व श्रद्धान पोषि मोहभावका प्रयोजन प्रगट किया होय ते शास्त्र नाही शस्त्र है।             (  मोक्षमार्ग प्रकाशक , प्रथम अधिकार )
      


                       जैन साहित्य की व्यापकता

जैन धर्म को जीवित रखने के लिए हमारे महान विद्वान एवं आचार्य ने अनेकों शास्त्र अनेकों विभागों में लिखे थे ।

जैन लेखकों की कृतियाँ परिमाण, गुणवत्ता, विविधता आदि अनेक दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण सिद्ध होती हैं। यहाँ हम उन्हें विविधता की दृष्टि से देखने का लघु प्रयास करना चाहते हैं।

आश्चर्य होता है कि जैन लेखकों ने धर्म, दर्शन, अध्यात्म आदि कुछ गिने-चुने विषयों पर ही नहीं, अपितु भारतीय वाड.मय के प्रायः प्रत्येक विषय पर अनेकानेक कृतियों की रचना की है 

        जैन साहित्य पूरे विश्व का सर्वोत्कृष्ट एवं अद्वितीय है    

भूदरदासजी ने जैन शतक में कहा है :-
  (कवित्त मनहर)
जीवन अलप आयु बुद्धि बल हीन तामैं,
आगम अगाध सिंधु कैसैं ताहि डाक है ।
द्वादशांग मूल एक अनुभौ अपूर्व कला,
भवदाघहारी घनसार की सलाक है ॥
यह एक सीख लीजै याही कौ अभ्यास कीजे,
याकौ रस पीजै ऐसो वीरजिन-वाक है ।
इतनो ही सार येही आतम को हितकार,
याहीं लौं मदार और आगे ढूकढाक है ॥२१

हे भाई ! यह मनुष्य जीवन वैसे ही बहुत थोड़ी आयुवाला है, ऊपर से उसमें बुद्धि और बल भी बहुत कम है, जबकि आगम तो अगाध समुद्र के समान है, अत: इस जीवन में उसका पार कैसे पाया जा सकता है?

अत: हे भाई! वस्तुतः सम्पूर्ण द्वादशांगरूप जिनवाणी का मूल तो एक आत्मा का अनुभव है, जो बड़ी अपूर्व कला है और संसाररूपी ताप को शान्त करने के लिए चन्दन की शलाका है। अत: इस जीवन में एकमात्र आत्मानुभवरूप अपूर्व कला को ही सीख लो, उसका ही अभ्यास करो और उसका ही भरपूर आनन्द प्राप्त करो। यही भगवान महावीर की वाणी है।

हे भाई। एक आत्मानुभव ही सारभूत है - प्रयोजन भूत हैं, करने लायक कार्य है, और इस आत्मानुभव के अतिरिक्त अन्य सब तो बस कोरी बातें हैं।

तथा इस प्रसंग में एक दोहा भी गंभीरतापूर्वक विचारणीय है -
“अंतोणत्थि सुईणं कालो थोओ वयं च दुम्मेहा।
तं णवरि सिक्खियव्वं जं जरमरणक्खयं कुणदि।”(99)
                                         (मुनि रामसिंह के ‘पाहुड दोहा’)

अर्थात् शास्त्रों का अन्त नहीं है, समय थोड़ा है और हम दुर्बुद्धि हैं, अत: केवल वही सीखना चाहिए जिससे जन्म-मरण का क्षय हो।

     इसलिए जैन शास्त्रों का अध्यन करके अपना कल्याण करो।

 


Tuesday, 8 December 2020

जैन साहित्य कि विस्तृता

   जैन साहित्य कि विस्तृता


                  ।    पंच परमेष्ठि भगवंतो की जय हो  ।   

             

जैन शासन एक अद्भुत एवं महान शासन है ।
जैन धर्म को जीवित रखने के लिए हमारे महान विद्वान एवं आचार्य ने अनेकों शास्त्र अनेकों विभागों में लिखे थे ।

जैन लेखकों की कृतियाँ परिमाण, गुणवत्ता, विविधता आदि अनेक दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण सिद्ध होती हैं। यहाँ हम उन्हें विविधता की दृष्टि से देखने का लघु प्रयास करना चाहते हैं।

आश्चर्य होता है कि जैन लेखकों ने धर्म, दर्शन, अध्यात्म आदि कुछ गिने-चुने विषयों पर ही नहीं, अपितु भारतीय वाड.मय के प्रायः प्रत्येक विषय पर अनेकानेक कृतियों की रचना की है।

इसीप्रकार साहित्य की लगभग हर विधा में ही उनकी कृतियाँ उपलब्ध होती हैं, चाहे वह गद्यात्मक हो या पद्यात्मक | इतना ही नहीं, जैन लेखकों ने अनेक नई विधाओं का उद्धव और विकास भी किया है।

यहाँ हम कतिपय महत्त्वपूर्ण विषयों एवं विधाओं पर जैन लेखकों की कृतियां नमूने के तौर पर संचित कर रहे हैं, ताकि जैन विद्या की व्यापकता का कुछ अनुमान हो सके।

का।  सर्वप्रथम विविध विषयों के अनुसार जैन कृतियाँ देखिये
                       
1. अध्यात्म : समयसार, नियमसार, इष्टोपदेश, समाधितन्त्र, परमात्मप्रकाश,अध्यात्मतरंगिणी ।
                         
2. धर्म - पद्मनंदी-पंथविशतिका, प्रतिष्ठा-प्रदीप, धर्मामृत, षट्कर्मोपदेश,जानपीठ-पूजाजलि।
                               
3. दर्शन  षट्खंडागम, तत्त्वार्थसूत्र, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, पंचाध्यायी, धवला |

4. आचार - रत्नकरडश्रावकाचार, पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, मूलाचार, धर्मामृत ।

5. न्याय - परीक्षामुख, न्यायदीपिका, प्रमाणमीमांसा, प्रमेयकमलमार्तण्ड, प्रमेयरत्नमाला, अष्टसहसी, न्यायविनिश्चय, स्याद्वादमंजरी, आप्तमीमांसा, आप्तपरीक्षा, तर्कभाषा, नए चक्र ।
                             
6. साहित्य- गद्य चिंतामणि , गीतवीतराण, धर्मशर्माभ्युदय, जैनमेघदूत, भरतेश-वैभव, मदन-पराजय, अध्यात्मबारहखड़ी, दौलत-विलास |

7. छंद - स्वयम्भूच्छद, छंदोनुशासन, प्राकृत-पैगले, छंदशतक, रत्नमंजूषा, वृत्तजातिसमुच्चय छन्द कोश, छन्दकन्दली, कविदर्पण, छन्दःशास्त्र

8. अलंकार -वाग्भटालंकार, अलंकारदर्पण, काव्यानुशासन, शृंगारमंजरी, कल्पलता, कविशिक्षा, अलंकारप्रबोध,अलकारमहोदधि,अलंकारमडन, अलकारचिंतामणि शृंगारार्णवचन्द्रिका ।

9. व्याकरण -कातन्त्र, जैनेन्द्र, शब्दानुशासन, शब्दाम्भोजभास्कर, शाकटायनन्यास, शब्दार्णव धातुमजरी धातुरत्नाकर,उपसर्गमडन, 

                      
                  

10 आयुर्वेद कल्याणकारक, अष्टांगसंग्रह,सिद्धांतरसायनकल्प, पुष्प आयुर्वेद, वैद्यवल्लभ, रसचितामणि, ज्यरपराजय, आपुर्वेदमहोदचि, निदानमुक्तावली, नाड़ीपरीक्षावैद्यामृत, बालगृहचिकितसा।

11. गणित। - गणितसारसंग्रह, गोम्मट्टसार, लब्धिसार, क्षपणासार, बीजगणित, व्यवहारगणित, गणितसूत्र, गणितसंग्रह, सिद्ध भूपद्धति, षटत्रिंशिका, अर्थसंदृष्टि ।


               




12. ज्योतिष- भद्रबाहुसंहिता, भारतीय ज्योतिष, जातक तिलक, विवाहपडल, कालसंहिता, प्रश्नपन्धति, प्रश्नशतक, ज्योतिष्प्रकाश, ज्योतिषरत्नाकर।

13. वास्तु- वत्धुसारपगरण, लोयालोयविभाग, प्रतिष्ठासारोद्धार, वत्थुविज्जा।

14. सामुद्रिक- सामुद्रिकशास्त्र, सामुद्रिकलक्षण, हस्तसंजीवन, करलक्खण, अंगविज्जा, अंगविद्याशास्त्र

15. रमल-रमलशाख, रमलविद्या, पाशाकेवली,अर्हत्याशाकेवली ।

16. भूगौल- त्रिलोकसार, तिलोयपणणक्ति।

17. खगोल सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति ।
 

          




18. पुराण- महापुराण, पद्मपुराण, हरिवंशपुराण,पांडवपुराण, पार्श्वपुराण ।
19. चरित  - श्रीपालचरित, जीवन्धरस्वामिचरित,चन्द्रप्रभचरित, श्रेणिकचरित, यशोधरचरित ।


                   



20. कथा- धर्मपरीक्षा, समराइच्चकहा, वसुदेवहिंडी, कुवलयमाला, पुण्यास्रव-कथाकोश, गद्यकथाकोश व्रतकथाकोश, आराधना-कथाकोश, सम्यक्त्वकौमुदी।

21. आत्मकथा- अर्धकथानक, मेरी जीवनगाथा।

        
22. कला - चित्रवर्णसंग्रह, कलाकलाप, मषीचार।

23. शिल्प- वास्तुसार, शिल्पशास्त्र |

24. कोश- जैनेन्द्र सिद्धांत कोश, अभिधान राजेन्द्र कोश, नाममाला, पाइयसद्दमहणणव, पाइलच्छीनाममाला, विश्वलोचनकोश, एकाक्षरकोश।

25. भक्ति-स्तुति- स्तुतिविद्या, दशभक्ति, स्वयम्भूस्तोत्र, भक्तामरस्तोत्र, कल्याणमन्दिरस्तोत्र, महावीराष्ट्रकस्तोत्र,
सिद्धचक्रविधान, इंद्रध्वजविधान, उवसग्गहरत्थोत्त |

26. अर्थशास्त्र- कार्तिकेयानुप्रेक्षा, अहिंसक अर्थशास्त्र, महावीर का अर्थशास्त्र, तीर्थंकर महावीर की अर्थनीति [डॉ.निर्मल
जैन,मेघ प्रकाशन, नई दिल्ली]]

27. समाजशास्त्र- यशस्तिलकचम्पू पुरुदेवचम्पू. महापुराण |

28. राजनीतिशास्त्र-क्षत्रचूड़ामणि, नीतिवाक्यामृत ।

29. निमित्तशास्त्र- जोणीपाहुड, रिट्रसमुच्चय, निमित्तपाहुड, जयपाहुड, सिद्धादेश,पणहवागरण

30. विधिशास्त्र [law- इंद्रनंदी-संहिता, अर्हन्नीति, the jain law,

             


31. नीतिशास्त्र-सुभाषितरत्नसंदोह, नीतिवाक्यामृत, सूक्तिमुक्तावली, जिनसंहिता |



32. योगशास्त्र- योगसार, ज्ञानार्णव, ध्यानशतक, तत्त्वानुशासन, योगसारसंग्रह।

33. लक्षणशास्त्र- जैनलक्षणावली, लक्षणमाला, लक्षणसंग्रह, लक्ष्यलक्षणविचार, लक्षणपंक्तिकथा|



34. संगीतशास्त्र- संगीत-समयसार, संगीतशती, संगीतरत्नावली, संगीतोपनिषद, संगीतदीपक, संगीतमंडन, संगीतसहपिंगल।

35. स्वप्रशास्त्र- सामुद्रिकतिलक, अंगविज्जा, भद्रबाहुचरित, सुविणदार, स्वप्नशास्त्र, स्वप्नप्रदीप |

36. शकुनशास्त्र- शकुनसारोद्धार, शकुनरहस्य, शकुनरल्नावली, शकुनावलि, शकुनविचार|

37. नाट्यशास्त्र- नाट्यदर्पण, नाट्यदर्पणविवृत्ति, प्रबंधशत,।

38. काव्यशास्त्र- नवरस पद्यावली,काव्यानुशासन काव्यालोचन, काव्यालंकार टीका।



39. मंत्रविज्ञान- मन्त्रमहोदधि, मंत्रानुशासन, लघुविद्यानुवाद, मन्त्रव्याकरण, सरस्वतीकल्प ।

40. धातुविज्ञान धातुवादप्रकरण, भूगर्भप्रकाश, धातूत्पत्ति

41. रत्नविज्ञान- रत्नपरीक्षा, हीरकपरीक्षा, मणिकल्प |

42. भौतिकविज्ञान- द्रव्यसंग्रह, पंचास्तिकाय ।

43. मनोविज्ञान - कषायपाहुड, धवला, जयधवला, चित्त और मन |

44. प्राणिविज्ञान- तुरंगप्रबंध, हस्तिपरीक्षा, मृगपक्षिशास्त्र ।

45. मृत्युविज्ञान- मरणकंडिका, भगवती-आराधना, मृत्युमहोत्सववचनिका |

[ख] अब साहित्य की विविध विधाओं की दृष्टि से जैन कृतियों का अवलोकन कीजिये--

1. महाकाव्य- पद्मानंद, धर्मशर्माभ्युदय, ऋषभायण, शिलप्पदिकारम्, मणिमेखला, कुंडलकेशी, रायमल्लाभ्युदय

2. खण्डकाव्य- पाश्वभ्युदय, पश्चात्ताप ।

3. मुक्तककाव्य- वज्जालग्ग, बुधजन-सतसई, जैन शतक|

4. चरितकाव्य - वर्धमानचरित, प्रह्मुम्नचरित, चन्द्रप्रभचरित, श्रेणिकचरित, सनलत्कुमारचरित, कुमारपालचरित, वस्तुपालचरित|

5. पुराण- महापुराण, पद्मपुराण, हरिवंशपुराण, शांतिनाथपुराण, अजितनाथपुराण, पांडवपुराण |

6. रासोकाव्य-आदिनाथरास, भरतेश्वर-बाहुबली-रास, ब्रह्मगुलालरास, श्रीपालरास, हनुमंत-रास, होली-रास

7. फागकाव्य -आदीश्वर फाग, चैतन्य फाग, वीरविलास फाग |

8. धूलिकाव्य ऋषभनाथ की धूलि |

9. सन्धानकाव्य- द्विसन्धानकाव्य, सप्तसन्धानकाव्य चतुर्विशतिसन्धानकाव्य

10. दूतकाव्य- नेमिदूत, जैनमेघदूत, शीलदूत, पवनदूत ।

11. सूक्तिकाव्य- सूक्तिमुक्तावली, सुभाषितरत्नसंदोह ।

12. नीतिकाव्य बुधजन सतसई, उपदेश शतक

13. ललितकाव्य- नेमिनिर्वाण, जयंतविजय, नरनारायणानन्द,चतुर बनजारा ।

14. गीतिकाव्य चौरपंचाशिका, गीतवीतराग, क्षेत्रपाल-गीत, गीत-परमार्थी,जीवडा गीत,णमोकार गीत, अष्टाह्निका गीत |

15. गद्यकाव्य-तिलकमंजरी, गद्यचिंतामणि, कुवलयमाला |

16. चम्पूकाव्य- पुरुदेवचम्पू जीवन्धरचम्पू. चम्पूमण्डन |

17. रूपककाव्य- मोहराजपराजय, मदनपराजय, मोहविवेकयुद्ध, ज्ञानचन्द्रोदय, विवेक-विलास, परमहंस| 18. नाट्यकाव्य- ज्ञानसूर्योदय, समयसार नाटक ।

19. संवादकाव्य- जिह्वा-दन्त-संवाद, चेतन-काया संवाद, निमित्त-उपादान-संवाद, पंचेन्द्रिय-संवाद।

20. चौपाईकाव्य- मधुबिंदुक चौपाई, धर्मसार चौपाई।

21. अष्टककाव्य- अकलंकाष्टक, पार्श्वनाथाष्टक, महावीराष्ट्क, सांत्वनाष्टक, दृष्टाष्टक |

22. दशककाव्य - दर्शन-दशक,

23. चतुर्दशीकाव्य -आश्चर्य-चतुर्दशी, भवसिन्धु-चतुर्दशी ।

24. पच्चीसीकाव्य- अध्यात्म-पच्चीसी, वैराग्य-पच्चीसी, व्यवहार-पच्चीसी, नवकार-पचीसी, पद्मनंदी पच्चीसी |

25. बत्तीसीकाव्य-कमल-बत्तीसी, अनादि-बत्तीसी, अक्षर-बत्तीसी, आत्म-बत्तीसी, भावना-बत्तीसी, स्वप्न-बत्तीसी ।

26. पंचाशिकाकाव्य - संबोधन-पंचाशिका, पूर्ण-पंचाशिका |

27. बावनीकाव्य -अक्षरबावनी, दानबावनी।

28. शतककाव्य- जैनशतक, उपदेशशतक, भुजबलिशतक, अपराजितशतक, छंदशतक |

29. वेलि - जम्बूस्वामि-वेलि, बाहुबली-वेलि, गुणस्थान-वेलि।

30. चूनडी - चूनड़ी (भगवतीदास) ।

31. सतसई - बुधजन सतसई

32. बारहखड़ी - बारहक्खर-कक्क, अध्यात्मबारहखड़ी।

33. बारहमासा - -बारहमासा, बारहमासा, बारहमासी-गीत |

34. विलासकाव्य-बनारसी-विलास, दौलत-विलास, द्यानत-विलास, वृन्दावन-विलास, भूधर-विलास, ब्रह्म-विलास, वि विलास |

35. भक्तिकाव्य- दशभक्ति, चैत्यभक्ति, सिद्धभक्ति, आचार्यभक्ति, श्रुतभक्ति |

36. स्तुतिकाव्य- स्तुतिविद्या, देवस्तुति, आदिनाथ स्तुति ।

37. स्तोत्रकाव्य - भक्तामरस्तोत्र, कल्याणमंदिरस्तोत्र, विषापहारस्तोत्र।

38. पूजाकाव्य - देवशास्त्रगुरु पूजा, आदिनाथ-पूजा, महावीर-पूजा|

39. विधानकाव्य सिद्धचक्र-विधान, इंद्रध्वज-विधान, शांतिनाथ-विधान, पञ्चपरमेष्ठी-विधान |

40. आरतीकाव्य-पंचपरमेष्ठी आरती, पार्श्वनाथ-आरती, वर्धमान आरती, आरती संग्रह।

41. चालीसा काव्य- चन्द्रप्रभ-चालीसा, पार्श्वनाथ-चालीसा, महावीर-चालीसा।

42. जयमालाकाव्य- श्रुत-जयमाला, गुरु-जयमाला, तीर्थ-जयमाला, दशलक्षण-जयमाला, षोडशकारण- जयमाला, बी तीर्थंकर जयमाला, चौरासी जाति जयमाला

43. प्रश्नोत्तरी - प्रश्नोत्तररत्नमालिका योगसार-प्रश्नोत्तरी, परमात्मप्रकाश-प्रश्नोत्तरी

44. सूत्र तत्त्वार्थसूत्र, परीक्षामुखसूत्र, ध्यानसूत्र, षटखंडागमसूत्र ।

45. वृत्ति- सर्वार्थसिद्धि, देवागमवृत्ति, तत्त्वार्थवृत्ति, प्राकृतपञ्चसंग्रहवृत्ति, सिद्धिविनिश्चयवृत्ति, परमार्थप्रकाशवृत्ति,लघीयस्त्रय-वृत्ति ।

46. वार्तिक तत्त्वार्थवार्तिका

47. टीका -आत्मख्याति, तत्त्वप्रदीपिका, तात्पर्यवृत्ति

48. टब्बाटीका- वसुनंदी-श्रावकाचार-टब्बाटीका, तत्त्वार्थसूत्र-टब्बाटीका, समयसारटब्बाटीका, कार्तिकेयानुप्रेक्षा-टब्बा

49. भाष्य- श्लोकवार्तिकभाष्य, प्रमाणसंग्रहभाष्य |

50. महाभाष्य- गंधहस्ति-महाभाष्य,

51. टिप्पण - महापुराण-टिप्पण, न्यायदीपिका-टिप्पण, धर्मचरित-टिप्पण।

52 चूर्णि - कषायपाहुडचूर्णि।

53. भाषावचनिका- रत्नकरंड-भाषावचनिका, समयसार-भाषावचनिका, परीक्षामुख-भाषावचनिका। 54. कथा-सुगंधदशमीकथा, भविष्यदत्तकथा, अनंतचतुर्दशीकथा |

55. कहानी -अहिंसा के पथ पर, आप कुछ भी कहो, जैनधर्म की कहानियाँ ।

56. चित्रकथा- अनंगधरा, षटखंडागम, कहान कथा: महान कथा, ताली एक हाथ से बजती रही, आटे का मुर्गा |

57. आत्मकथा- अर्धकथानक, मेरी जीवनगाथा |

58. जीवनी- चारित्रचक्रवर्ती, ज्ञान का हिमालय, सुधा का सागर, विद्याधर से विद्यासागर।

59. उपन्यास- मुक्तिदूत, सत्य की खोज।

60. नाटक सुभद्रा, विक्रांतगौरव, ज्योतिष्प्रभा, अंजनापवनंजय।

61. एकांकी- धर्म शमभ्युदय, शमामृत |

62. शोधप्रबंध-जैनदर्शने बंधमुक्तिविमर्श: पंडित टोडरमल व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व ।

63. गुर्वावली- गुर्वावली, जैन-शिलालेख-संग्रह, प्रबंधावली, प्रबंध-चिंतामणी।

64. पट्टावली- पुरातन-प्रबंध-संग्रह, सेन पट्टावली, वृद्धवाचार्य प्रबंधावली |

65. प्रशस्ति- वस्तुपाल-प्रशस्ति, मूलाचार-प्रशस्ति, सुकृतकीर्तिकल्लोलिनी |

66. पत्र - रहस्यपूर्ण चिट्ठी,उपादान-निमित्त की चिट्ठी, आध्यात्मिक पत्रावली, स्वानुभव-पत्रावली |

67. कोश - प्रबंधकोश, जैनेन्द्र-सिद्धांत-कोश, अभिधान-राजेन्द्र-कोश |



       इन छोटी क्रतियो को देखकर हम कल्पना  कर सकते है
     की जैन साहित्य कितना विस्तार से फैला हुआ है ।
         
           


तमिलनाडु का जैन साहित्य

                           जैन धर्म की महानता 


1जैन धर्म एक महान और  ऐतिहासिक धर्म है ।  जैन धर्म अनादि से प्रत्येक क्षेत्र में  अनादि से सर्वश्रेष्ठ  है । 
2  जैन  धर्म  पर अनादि से  अनेकों विरोधियों ने अनेकों बार बहुत हनी पहुंचाई है । लेकिन  फिर भी इस सर्वश्रेष्ठ  शासन  साहित्य मै , ज्योतिषी में , संगीत में , व्याकरण में , गणित में ,  कला में , ध्यान में , विज्ञान में आदि    प्रत्येक विभाग में  निरंतर आगे रहा है ।


                  * जैन आचार्यों एवं कवियों की पवित्र भूमि *
                                         तमिलनाडु




*दक्षिण भाग इस भारत भूमि का एक पवित्र और ऐतिहासिक भूमि है।   इसी भूमि में जैन शासन के दिग्गज महान आचार्य एवं महान कवियों की भूमि थी ।


* इसी भूमि में  जैन शासन के अनेकों ऐतिहासिक शास्त्र लिखे गए है ।      जैन शासन मै अनेकों   शास्त्रों  का घाट अनेकों  लोभी जीवो के कारण हुआ था लेकीन इस। पवित्र शासन मै अनेकों ऐतिहासिक शास्त्र  प्रत्येक विभाग में  पाए जाते है ।
* नीचे  अनेकों  महान ऐतिहासिक एवं पवित्र तमिल शास्त्रों का  परिचय दिया जा रहा है ।
              
   * जानिए  इस जिनशासन के प्रभावी आचार्यों की  महानता।  *




                          विषय। सूची  

      जैन आचार्यों का संघ कल
     महाकाव्य
     लघु काव्य
    अठारह उपग्रंथ
    नीति ग्रंथ
    पुराण।  
    चरित्र ग्रंथ
    वृतांत ग्रंथ
    केशी ग्रंथ
   अन्य साहित्य। 

   व्याकरण  ग्रंथ 
   उला ग्रंथ 
   कोश ग्रंथ
   ज्योतिष ग्रंथ
   गणित ग्रंथ
   मंत्र  शास्त्र 
  संगीत शास्त्र
   वान शास्त्र 
   गद्य शास्त्र
टीकाकारो के ग्रंथ


                     जैन आचार्यों की साहित्य-सेवा



तमिलनाडु के अन्दर जैन धर्म के बारे में विचार करते हैं तो मुख्यतया साधुओं को ही ग्रहण किया जाता है। जब तमिलनाडु के अन्दर जैन धर्म महोत्रत स्थिति में था, तबकी जैन साधु महात्माओं की साहित्य सेवा व सृष्टि के बारे में यहाँ विचार करेंगे।

        संघ काल

कुछ विद्वानों का कहना यह है कि पहला, दूसरा और तीसरा इस तरह बहाँ तीन संघ थे । पहला संघ दक्षिण मथुरा में था इस संघ में हजारों विद्वान थे यह संघ हजारों साल चलता रहा। दक्षिण मथुरा नष्ट होने के बाद पहला संघ भी खत्म हो गया। फिर दूसरा संघ पाटलिपुत्र में स्थापित किया गया था। वह संघ भी हजारों साल चला । उसमें भी हजारों विद्वद्गण सदस्य थे । कालवश वह भी नष्ट हो गया उसके बाद तीसरा संघ दक्षिण मथुरा में स्थापित किया गया था उसमें भी हजारों विद्वान सदस्य थे। इस तरह के संघों की कल्पना अजैनों की है। इनके संस्थापक कौन थे ? काल कौनसा है ? इनका निर्णय नहीं हो पा रहा है। अपनी इच्छानुसार मनमाना बोलते हैं।

इन संघों के बारे में पी. टी. श्रीनिवास अय्यर आदि कुछ निष्पक् विद्वानों का कहना यह है कि ये तीनों संघ बिलकुल काल्पनिक है। वास्तविक नहीं हैं। सचमुच में जैन और बौद्ध विद्वान साधुओं के संघ थे। उन महापुरुषों के द्वारा साहित्य-सृष्टि की भरमार होने लगी। इसे देखकर शैव लोगों को सहन नहीं हुआ। उन सोगों (शैव) ने अपने मत का प्रचार करने के वास्ते इन तीनों संघों की कल्पना कर डाली। उनके वीनों संघों की बात बिलकुल गप्प है। वे शिव और उनका लड़का वण्मुख का नाम बोड़ कर, सिर्फ अपना मत प्रचार करना चाहते थे। यही उनका मुख्य उद्देश्य था। जो साहित्य, संभकाल का माना जाता है, उसमें संघ का नाम तक नहीं है। संघकाल, साहित्य में शैवों का ही है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। इस तरह कारण बताकर शैवों के तीनों संघों का अव्यगार आदि बहुत से इतिहासवेत्ता लोग खण्डन करते हैं। अतः निष्पक्ष अजैन विद्वानों के विचारों को स्वीकारतमिलनाका कर शैकों के कल्पित (निराधार) संघों को छोड़ देना ही उचित है। क्योंकि उनका काल आदि निर्णय नहीं होने से विश्वास करने लायक नहीं है। उसके बारे में और भी विचार किया जा सकता है। परन्तु समय को बेकार करना है । अरस्तु।

कुछ विद्वानोंका कहना यह है कि उक्त तीनों संघ जैनों के थे । न कि शैवों के । अपने मत के प्रचार के कारण शैव लोग जैन संघों को अपना संघ कह डालते हैं। वास्तव में संघ उनके नहीं है। जैनों के ही हैं।

और कुछ विद्वानोंका कहना यह है कि जैनाचार्य वज्रनन्दी नामक महामुनि के प्रयलन से द्रामिल (द्रविड) संघ की स्थापना हुई थी। उसमें बहुत से जैन विद्वान मुनि थे वे मुनिगण पाण्डित्य में अगाध एवं अलौकिक थे। आज कल जो अमूल्य जैन साहित्य मिलता है, वह सब उन महात्माओं की देन है। कुछ भी उन विद्वानों का कहना यह है कि जैन साधु-महात्माओं की साहित्य सेवा अमूल्य है ।

पहले के जो दो संघ ये उनके काल का जो साहित्य है, उनकी गिनती "मेल पदिणेन कणक्कुनूल" (पहले के अठारह मन्थों ) में आती है। आखिर का जो संघहैं, उसके साहित्य और उनकी गिनती कील पदिणेन कणक्कुनूल' (बाद के अठारह पन्थों) के रूप में आती है।

पहले के दो संघकाल के साहित्य में राजा लोगों के झगड़े आदि का वर्णन है । उसमें धर्म और नीति आदि जनोपयोगी विषयों का अभाव होने के कारण, उस पर ज्यादा ध्यान देने की आवश्यकता नहीं है। आखिर के (तीसरे) संघ का काल है. पूर्व तौसरी सदी से माना जाता है। आजकल मिलने वाले उत्तमोत्तम जैन साहित्य-रत्न इसी में पाये जाते हैं। कुछ लोगों का कहना यह है कि मतदेष के कारण पहले जो दो संघ थे उस काल के जैन साहित्य को जलाने, पानी में फेंकने आदि दुराचार के द्वारा नष्ट-भ्रष्ट कर दिया गया है पहले के दो संघ-काल के साहित्य में जैनत्व का अंश तो अवश्य था परन्तु आखिर के संघ काल के साहित्य के समान विशेष नहीं पाया जाता। उसके बारे में काल (समय) ही उत्तर दे सकता है। काश। देव इतना भयंकर है? इसी ने सारे अमूल्य रत्नों का नाश किया।

अब हम जैन साहित्य के बारे में विचार करेंगे।

साहित्य, काल (समय) का दर्पण है। इतिहास बतलाता है कि हर एक भाषा का साहित्य अपने स्वत्व रक्षा के निमित्त करण्डक (सुरक्षा पेटी) है। इतिहास और साहित्य को विभाजित कर देखना असंभव है इसके पुयातनत्व का निर्णय भी दृष्टिगोचर नहीं हो रहा है। फिर भी हम इस महत्वपूर्ण मंथ में उसके महत्व को बताना आवश्यक समझते हैं। कुछ इतिहासकारों का भ्रमपूर्ण प्रतिपादन है कि जैनधर्म का जन्म उत्तर भारत में दुआ और वह दक्षिण में ई. पूर्व तीसरी सदी में आया इसके बारे में हम पहले ही काफी प्रकाश डाल चुके हैं। वास्तव में यहाँ दक्षिण तमिलनाडु में बैनत्व का अस्तित्व उक्त काल के पहले भी रहा, इसके कई आधार मिलते हैं।

   
    
    
    
जैन साहित्य को क्रमबद्ध करते हुए हम यहाँ विचार करेंगे । जैनत्व के महत्व को हम दूसरे मार्ग से नहीं जान सकते । उसके लिये अपना साहित्य ही एकमात्र सहारा है । अन्य मतवाले इस साहित्य के कालनिर्णय में भी गड़बडी करते हैं । फिर भी हमें अन्य साधन न होने के कारण इसी रास्ते पर चलना पड़ता । अतः इसी के सहारे आगे बड़ेंगे।

तोलकाप्पिय : भाषाविज्ञ लोग जानते हैं कि साहित्य के आधार से ही व्याकरण की सृष्टि होती है। जब हम इस तोलकाप्पियं को तमिल भाषा का पहला व्याकरण मानते है, तो इसके पहले अनगिनत साहित्य अवश्य होना चाहिये । इसमें कोई शक नहीं है अब हमें जो सीढ़ी मिली है, उसी से ऊपर चढ़ना है। आज हमें पूर्ण रूप में मिलने वाला व्याकरण ग्रन्थ तोलकाप्पियं ही है। यह काल की अपेक्षा से प्राचीन माना जाता है । तोलकाप्पियं के बाद के अर्वाचीन व्याकरण कई हैं उन सब के बारे में पीछे विवरण दिया जायेगा। उक्त तोलकार्यं के रचयिता "तोलकाम्पियर" हैं इस अन्य की व्याख्या कई लोगों ने लिखी है। इसमें अक्षर, वचन और अर्थ इस तरह के तीन अधिकार हैं । उसमे १६०२-पद्य हैं। इस मन्थ के काल के बारे में यद्यपि मतभेद हैं फिर भी अविरोध रूप से इसका काल ई. पूर्व तीसरी सदी का माना जाता है । हसके महत्व के बारे में बहुत से लोगों ने खूब तारीफ की है। श्री वैयापुरि पिल्ले, मयिलै-सीनु-वेंकट स्वामी, वेंकट राजुलु रेड्डियार, वेणु-गोपाल पिल्लै आदि कई विद्वान लोग इसे जैन पन्य ही मानते हैं। उसमें जैनत्व की भरमार है । अतः इसे हर तरह से स्वीकार करना पड़ेगा कि वह जैन ग्रन्थ ही है और यह जैनाचार्य द्वारा ही विरचित है ।

मैं इस ग्रंथ के जैनत्व के बारे में सिर्फ एक उदाहरण देना पर्याप्त समझता हूं। वह यह है कि- "विनैयित्रीगिय विलंगिय अरिवन् मुनैवन् कण्डटु मुदल नूलागुं यह तोलकार्यं का पद्य है। इसका अर्थ यह है कि कर्मों से विनिर्मुक्त जो भगवान सर्व देव हैं, उनसे कहा गया (देखा गया ) जो शास्त्र है,वही पहला है। हर कोई इस पद्य के आधार से समझ सकता है कि यह ग्रन्थ जैनत्व के साथ कहाँ तक सम्बन्ध रखता है ? इसका निर्णय पाठकों के ऊपर ही छोड़ देते हैं।

पेरग्ति : यह भी एक प्राचीन व्याकरण है। परन्तु यह मन्य अप्राप्य है इस मन्य के कुछ पद्य मिलते हैं। कुछ लोगों का कहना है कि वे पद्य पेरगतियं के नहीं है। इस पर खोज करना है। यह भी एक बेन व्याकरण अन्य माना जाता

मापुराण : यह भी एक जैन व्याकरण है इसके नाम के सिवाय बाकी कुछ भी मालूम नहीं पड़ता। जैन व्याकरण की गणना में यह भी एक है।

संघकाल के पख अन्यों में जैनत्व का प्रभाव

संपकाल से लेकर चंपू काव्य के काल तक, चाहे बैन झे का ननैन, सारी र्चनायें पद्यरूप में ही हुआ करती थी इंपूकाव्या की श्चनायें जय शुरू होने लगी वभी से गद्य-पद्यात्मक रचनायें शुरू हुई। उसके अहले सारे व सिर्फ स्वरूप में ही लिखने की प्रथा थी। संघकाल के फह्यमन्यों में "एटटुबोने" (आउ मिनती) नाम की आाउ रथनायें  हुई। उनके अन्दर जैनाचार्यों का प्रभाव अच्छी तरह दीखता है। "ठलोचनार" नाम के कवि ने पैंतीस पद्यों की रचनायें की थीं। नट्रिणै नामक प्रन्थ के रचयिता ने ३८३ पद्यों की रचनायें की थीं। कुछ निष्पक्ष विद्वानों का कहना यह है कि इन पद्यों में जैनत्व का प्रभाव ज्यादातर दीख पड़ता है।

महाकाव्य

काव्यों में महाकाव्य और लघुकाव्य इस तरह दो भेद होते है । महाकाव्य पाँच हैं। उनमें तीन काव्य जैनों के हैं वे हैं : जीवकचिन्तामणि, सिलप्पचिकारं और वलैयापति। इनमें "सिलप्पधिकार" ई. दूसरी सदी का माना जाता है । जीवकचिन्तामणि के बारे में इतिहासकारों में मतभेद है। कोई कहते हैं कि वह ई. सदी का है। दूसरे कहते है कि ई. सातवीं सदी का है । तीसरे कहते है कि नौवीं सदी का है। परन्तु विचारशील टी. एक्स. श्रीपाल आदि विशेषज्ञों का कहना यह है कि वह ई. सातवीं सदी का ही होना चाहिये। उसके पीछे का नहीं हो सकता।

जीवकचिन्तामणि : यह प्रस्थ बडे महत्व का माना जाता है। इस मन्थ के कथानायक जीवन्धर स्वामी है। इस महान अन्य के रचयिता तमिल भाषा में चतुर एवं उच्च कोटि के विद्वान "तिरुसक्कदेवर" हैं। जीवन्धर स्वामी की जीवनी का उन्होंने अत्यन्त रोचक ढंग से वर्णन किया है जीवन्धर प्रभु आठ कन्या रलों के साथ बड़े वैभव से विवाह करते हैं। इस प्रन्थ में बार-बार शादी होने से इसे (मणनूल) बैवाहिक मन्थ के नाम से भी पुकारते हैं। इसका मूलाधार गद्य चिन्तामणि कहा जाता है । लोगों का कहना यह है कि इसकी कथा गद्यचिन्तामणि से ली गई है। कुछ लोग इसे गद्यचिन्तामणि से पहले का मानते हैं। शायद दोनों समकालीन हों। इसे चौपाई (वेग्बा) पद्य का आदि प्रन्य माना जाता है। इसका मतलब यह है कि इसके पहले तमिल भाषा में चौपाई पद्य की प्रथा नहीं. थी। इस पन्थ में कुल ३१४५ पद हैं। तेरह अध्याय हैं अध्याय को तमिल में "लम्ब कहते हैं। इसमें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन बारों पुरुषारों का विशद वर्णन है । धर्म को भूलने से और काम के अतिरेक से मानव को क्या क्या विपत्तियाँ होती हैं, इसके उदाहरण में जीवंधर स्वामी के पिता सत्यंधर महाराजा को दिखाकर अच्छे ढंग से समझाया गया है।

नीतिमान एवं तद्भव मोक्षगामी बीवंधर स्वामी के भोग वैभव का इसमें विशद् वर्णन है। आखिर उनके (जीवंधर स्वामी) वैराग्य का स्वरूप, संसार, शरीर और भोग स्याग द्वारा समझाया गया है कि हे मानव, जीवन्धर स्वामी के अपरिमित भोग-वैभव को देखो। अन्त में उन्होंने स्वर भोग-लालसा को तिलांजलि दी और अविनश्चर लक्ष्मी के शाश्वत भोग पर कैसे आरूढ हुए. इस पर ध्यान दो, तथा अपने कर्तव्य पालन में जपत हो जाओ । इस तरह अमृतमय शिक्षा अनवरत मिलती है। इस मन्च में घर्म, नीति, दर्शन, कवित्व और अलंकार आदि सभी विषय ओतप्रोत हैं। महाकाव्य के योग्य सभी विषय इसमें प्रतिपादित होने के कारण जीवकचिन्तामणि को महाकाव्य की कोटी में गिना जाता हैइस काव्य की महत्ता के बारे में एक कवि का कहना यह है कि एक व्यक्ति नाव पर बैठा है, वह नाव नदी में डूबती जा रही है। ऐसी हालत में कोई रक्षक आकर कहता है कि अब तुम्हारी नाव डूबती जा रही है। साथ में तुम सभी इूब आओगे। यदि कोई अमूल्य चीज तुम्हारे पास हो तो साथ लेकर मेरे साथ आ जाओ। मैं तुम्हें बना लूंगा। तब वह कहता है कि मेरी सारी संपत्तियां डूब जाय तो परवाह नहीं । परन्तु में एक बात्र अमूल्य चिन्तामणि को लेकर आपके साथ चलूंगा। इससे आप समझ सकते हैं कि इस महाकाव्य का महत्व कितना है? इस तरह तमिलनाडु की जैन, अजैन सारी बनता जीवकचिन्तामणि महाकाव्य को सर्वश्रेष्ठ मानती है।

सिलप्पधिकार : इलंगो अडिगल (अडिगल माने त्यागी सूचक गौरवपूर्ण शब्द है) नामक जैन साधु से रचा गया अद्भुत ऐतिहासिक ग्रन्थ है। मन्थकर्ता जैन धर्मानुयायी चेर (केरल) राजा के द्वितीय पुत्र युवराज थे। वे बाल ब्रह्मचारी थे। वे कैसे तपस्वी बने ? वह कथा अत्यन्त रोचक है। चेर राजा के दो पुत्र थे। वे दोनों राजसभा में बैठे हुए थे। सभा में एक ज्योतिषी आया और दोनों राजकुमारों को देख कर बोला, महाराज (राजा से) लड़कों के अंग लक्षणों से पता चलता है कि आपका द्वितीय पुत्र ही आप के राज्य का अधिकारी होगा। इस बात को सुनते ही बड़े लड़के का मुख मुरझा गया। छोटे ने अपने भाई के मुखारविन्द  को देखा और करुणाभाव के साथ, परी सभा में कहा कि मैं ज्योतिषी के वचन को झूठा सिद्ध कुगा इझट, अपने कपड़े निकाल फेंके और त्यागी याने क्षुल्लक बन गया। वही द्वितीय पुत्र इलंगो, लंगो अडिगल के नाम से गौरव के साथ पुकारा जाने लगा वही त्यागी महाशय इलंगो अडिगल ने आगे जाकर अपनी विद्वत्ता से उक्त "सिलप्पधिकार' की रचना की थी। वह प्रिय तत्कालीन चरित्रात्मक है । लोग इसे तीसरे संघकाल की रचना मानते हैं। उक्त ग्रन्थ से पता चलता है कि कवि के जीवन काल में मतद्वेष का अतिरेक ज्यादा नहीं था समन्वय का जमाना था।

ग्रन्थ में जैनत्वके साथ-साथ शैव, वैष्णव मतों के देवताओं का आदर के साथ बिक्र किया गया है। तो भी जैनधर्म के तात्विक विषयों का वर्णन प्रचुर मात्रा में है। नाटक के ढंग से लिखा गया पहला गद्यात्मक मन्थ है। ५०० पंक्तियां है । तीन राजाओं (बेर, चोल, पाण्ड्य) के बारे में विस्तृत विवेचन है तीन खण्ड (काण्ड) हैं तीसरे संघकाल के तमिल प्रान्तवासियों के जीवन का परिचय खूब मिलता है।

कोवलन और कण्णगी इस ग्रन्थ के कथा पात्र हैं। पुराने जमाने में राजा-महाराजाओं को ही कथापात्र बनाने की प्रथा थी। मानों उस रिवाज के प्रतिपक्ष में यह घन्य खड़ा किया गया हो। इसका मतलब यह है कि सिलप्पधिकार का कमाचान को कोवलन है, वह वणिक्कुल का पुत्र है। इस ग्रन्थ में रोचकता के साथ सोन बातों का विवेचन किया गया है। धर्म मार्ग से व्युत राजा को धर्म हैरान (गिरा हुआ) बना देता है । सती माता को महन्त लोग भी पूजते हैं। प्रारब्ध कर्म आगे आकर मत अवश्य देता है। अलाक इसके इस ग्रन्थ में "गवुन्दि अडिगल" नामक अजिंका को पात्र बनाकर उनके द्वारा बैन धर्म का मूढ रहस्य प्रतिपादित किया गया है।इस तरह न् का महत्य वर्णनाबीत है ।   वलयापति : इस ग्रन्थ के रचयिता का नाम, स्थान, मातृ-पितृ आदि का विवरण मालूम नहीं पड़ता। शायद ख्याति से निरपेक्ष आचार्य महाराज ने अपने नाम आदि का विवरण नहीं दिया हो। परन्तु यह जैन ग्रन्थ है। इसका आधार, मिले हुए कुछ पद्य है। इन पद्यों से पता चलता है कि मन्थकर्ता आचार्य भाषा के उद्भट विद्वान थे । प्रंथ पूर्णरूप से नहीं मिलता। सिर्फ ६२ पद्य ही मिल सके हैं। रचना की दृष्टि से सभी पद्य महत्त्व के हैं। दिगंबर जैन साधु सन्तों की रचना हर तरह से साधु ही होती है।

लघुकाव्य

लघु काव्य : ये काव्य भी पाँच है। वे हैं

(१) उदयन कुमार काव्य,(२) नागकुमार काव्य,(३) यशोधर काव्य.(४) चुलामणि काव्य, एवं (५) नील केशी। ये पाँचों जैन काव्य है अर्थात् जैनाबा्यों द्वारा रचे गये उतम काव्य प्रन्थ हैं।

उदयन कुमार काव्य : "कन्दियार" नामक जैन मुनि द्वारा रचा गया अद्भुत काव्य है। इसे पेरूंगदै नाम के प्रन्थ का सार अथवा संक्षेप कहते है। इसमें ३६ विरुत्तं नामक पद्य हैं, सभी महत्त्वपूर्ण है। हर एक पद्य कवित्व की गंभीरता के कारण, लोकप्रसिद्ध है । इसका काल ई. १५ वीं सदी का माना जाता है।

नागकुमार काव्य : ग्रन्थ कर्ता का नाम पता नहीं है। संस्कृत के नागपंचमी कथा के आधार पर इसकी रचना हुई है। इसमें पांच अध्याय है । १८० विरुत्तं नामक पद्य है। यह बड़ा रोचक काव्य है। इसे हाल ही में मद्रास विश्वविद्यालय ने प्रकाशित किया है ।

यह पन्थ ई. १२ वीं सदी का माना जाता है।

यशोधर काव्य : ग्रन्थ कर्ता का नाम मालूम नहीं है इस प्रन्थ में पाँच अध्याय है । ३२० पद्य है। यशोधर महाराजा की कथा सुन्दर ढंग से वर्णित है जीव हिंसा से होने वाली हानि और उससे होने वाले पाप का भयंकर ढंग से वर्णन है अपनी छाया के समान पाप कई भव तक पीछा करता है और कठिन से कठिन दण्ड देता है। पापभीरु, भव्यजीवों को चेतावनी देता है कि देखो यशोधर को, उसने आटे से नकली मुर्गा बनाकर देवी को बलि दी। उस का फल उसे कई भवों तक भोगना पड़ा। यदि कोई वास्तव में जीव-हिंसा करता है, तो उस की क्या दशा होगी? सोचने, समझने और सुधारने की बात है। इसकी कई व्याख्यायें हुई हैं। यह मन्थ १२ वीं सदी का माना जाता हैं।

बूलामणि : यह "तोलामोलिदेवर" नामक महान आचार्य द्वारा रचा गया अदभुत पन्थराज है। महाकाव्य के योग्य सभी लक्षण इसमें पाये जाते हैं। न जाने क्यों फिर भी लघुकाव्य के अन्दर इस की गणना की गई है। इसमें १२ अध्याय हैं। २१३१ पद् हैं। हर एक पद्य आचार्य के महत्व को प्रकट करता है। अत्यन्त मनोहारी पन्थ है। सभी धर्म वाले इसे बड़े चाव से पढ़ते हैं। यह धन्य ई.१० वीं सदी का माना जाता है।

नील केशी : अन्यकर्ता का नाम मालूम नहीं है। यह तर्क मन्य है। १० सर्ग है। ८९४ पद हैं। अन्य की नायिका नीलम नाम की देवी है। इसमें अन्य घर्मों का खण्डन।एवं जैनधर्म का मण्डन है। "वामनमुनि" नामक मुनिराज ने इसकी "समय दिवाकर विशति नामक अतिसुन्दर व्याख्या लिखी है। इसे प्रो.चक्रवर्ती ने कुछ साल पहले विशद अंग्रेजी भूमिका के साथ छपवाया है। अन्य लोगों का प्रकाशन भी है। इस ऋ्य के आधार से पन्थ कर्ता की तार्किक शक्ति और विद्वत्ता प्रकट होती है । यह ग्रन्थ १० वीं सदी का माना जाता है।

पदिणेन कील कणक्कुनूल : (अठारह उपग्रन्ध)

इन पंथों में कई जैन ग्रन्थ हैं। जैसे : तिरुक्कुरल, नालडियार, पलमोलि, टिस्कडुक, एलादि, सिरुपंचमूलं, तिणैमालैनट्रेबद, आचारक्कोवै, नानमणिक्कडिकै, हानार्पदु, इनियवैनार्पदु आदि हैं। इन प्रन्थों के बारे में आगे विचार किया जायेगा।

तिरुक्कुरल : यह अत्यन्त प्रशंसनीय नीति पन्य है । दूसरी सदी का है । महान आचार्य कुन्दकुन्द का है। इसके महत्व से प्रभावित होकर, अन्य मतवालों ने अपनी जाति के तिरुवल्लुवर से यह ग्रंथ रचा गया है, इस तरह कहते हुए झूठी काल्पनिक कथा भी जोड़ दी है। "पायिर" नामक पहले अध्याय के मंगलाचरण रूप दस पद्म बैनत्व के साथी है। उसमे प्रयुक्त आशा-निराशा मुक्त, उपमातीत, धर्मचक्र के नायक, अष्टगुणविशिष्ट, कमलफूल के ऊपर संचार करने वाले आदि-आदि उपमायें जैनत्व की सूचक हैं। बे सब गुण जिनेन्द्र भगवान के सिवाय अन्यत्र असंभव है। फिर भी अर्थ का अनर्व करनेवाले झूठे प्रचारकों की कमी नहीं है। जिनमें से कुछ लोगों का कहना है कि यह मन्थ नीति प्रधान होने के कारण सर्व धर्मग्रन्थ माना जाय । स्वार्थी लोग मनमानी बोलते हैं। यह तमिलवेद के नाम से प्रसिद्ध है। दोहा के रूप में रचा गया अत्युत्तम प्रन्थ है। दो पंक्तिवाले पद्य को तमिल में "कुरल कहते है। इस मन्य में १३३ अधिकार हैं । इर एक अधिकार में दस-दस पद्य हैं। कुल १३३० पद्य हैं। इस प्रन्य के महत्व के कारण करीब ४० देशी-विदेशी भाषाओं में इसका अनुवाद हुआ है संस्कृत और हिन्दी में भी इसका अनुवाद हुआ।

मालडियार : यह श्रमण याने जैन मुनियों की कृति है। इस परन्थ के बारे में एक कथा है। वह यह है कि पाण्ड्य राजा जैन था । हजारों मुनिराजों को आश्रय देता था । वह बडा मुनिभक्त था। उनके राज्य में आठ हजार मुनिराज विराजमान थे। राजा सेवाभावी होने के कारण मुनियों पर बड़ा प्रेम करता था इसलिये उन मुनिराजों को कहीं पर बाने नहीं देता था। मुनि महाराजों का विचार यह था कि मुनियों को एक ही जगह पर ज्यादा दिन नहीं रहना चाहिए। अतः मुनिगण राजा से बिना कहे, एक-एक पद लिख कर अपनी-अपनी चटाई के नीचे रख दिये और प्रात काल रवाना हो गये। या सुबह आकर देखता है कि वहां कोई मॉनिटर नहीं है। राजा को गुस्सा आ गया। गुस्से के कारण मुनिवरों से लिखे गये सारे पद्यों को नदी में । कुस आाठ इजार पह थे। इन आठ हजार पद्यों में से चार सौ पद्य पानी के प्रवाह से उलटे बैर रसामने आये। उन चार सौ पद्यों का संग्रह ही "नालडियार" है यही ठम अनैनों की गड़ी हुई कपा है । परन्तु कथा वास्तविक नहीं है । क्योंकि कोई भी साडपत्र पानी के प्रवाह से उलटा नहीं। आ सकता। अतः यह कथा काल्पनिक है। कुछ भी हो जैन मुनियों के द्वारा रचा गया नालडियार साधारण पन्थ नहीं है। बल्कि नीचे से भरा प्रन्थरत्न है जैन और अजैन सभी इस मन्थरा के महत्व पर मुग्ध हैं। सभी पद्म नीति से भरे हुए हैं एक भी पद्य छोड़ने लायक नहीं है। यदि कोई व्यक्ति इस प्रन्थ की नीति को अपने जीवन में उतारेगा तो उसका जीवन आनन्दमय होगा। यह उत्तमोत्तम पन्थ, पढ़कर, अनुभव करने एवं जीवन में उतारने लायक है। इसे एक चिन्तामणि रत्न कहें तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी इसका काल पाँचवीं सदी का है। इसमें चार सौ चौपाई पद्य हैं।

पलमोलि : यह प्रन्थ पलमोलिनानूर के नाम से प्रसिद्ध है । पलमोलि का मतलब है- लोकोक्ति । हर एक पद्य के आखिर में एक-एक लोकोक्ति है। इस प्रन्थ में चार सौ पद्य हैं। इसके रचयिता का नाम "मून्द्ररै अरैयनार" है इसके पद्यों को देखने से पता चलता है कि ये महात्मा तमिल भाषा के ओजस्वी विद्वान रहे होंगे। इनके अन्य प्रन्थों का पता नहीं चलता।

तिरिक्कडुकं : यह प्रन्थ का नाम है और साथ-ही-साथ एक दवाई का नाम भी है। जैसे सोंठ, काली मिर्च और पिप्पिलि इन तीनों से शरीर का रोग मिट जाता है वैसे ही इस ग्रन्थ के हर एक पद्य से तीन तरह के अर्थ निकलते है । उनसे शरीर के. मन के और कर्म (रूपी) रोग मिटते हैं। इसमें एक सौ पद्य हैं। प्रन्य अत्यन्त उपयोगी एवं सारगर्भित है। इसके रचयिता का नाम "नल्लादनार" है इनकी बाकी जीवनी मालूम नहीं पड़नी।

एलादि : इस ग्रन्थ का नाम एलादि है एल  को कहते हैं। जिसप्रकार इलायची, लवंग, सोंठ, कालीमिर्च आदि दवाई से शरीर का रोग मिटता है। वैसे ही हस प्रन्थ के अध्ययन से संसार, शगैर, भोगरूपी रोग मिट जायेगा | कितनी अच्छी बात है कि आचार्य ने दवाई के नाम मे प्रन्थ की रचना की है। मन्थ अत्यन्त सरस एवं भावपूर्ण है। पन्थ के रचयिता का नाम "गणिमेदवियार" है । इसमें अस्सी पद्य हैं। सब- के सब चितामणी रल हैं। वेण्बा नामक चौपाई पद्य से रचा गया है। इसके लेखनकाल के बारे में पता नहीं चलता।

सिरुपंचमूलं : जैसे धनियाँ आदि दवाइयों से शरीर की बीमारी नष्ट हो जाती है, वैसे ही इसमें पांच नीति कथायें हैं। इनसे मानव जाति को अच्छी सीख मिलती हैं। प्रन्थ कर्ता का एक मात्र उद्देश्य यह है कि मनुष्य के जीवन को सुधारना । उसके लिये हर तरह से शिक्षायें दी जाती हैं। अन्य कर्ता का नाम "कारियासान" है । इस पन्य का लेखनकाल मालूम नहीं पड़ता।

तिमालैनटरेबटु : एक तिणे (भेद) के तीस पद्य हैं। ये सभी पद्य आत्मा या मन संबन्धी है। इस तरह पाँच तिणे (पाँच भेद) के डेढ़ सौ पद्य हैं। पद्य इदयभाही हैं। पढ़ने लायक है। इसके रचयिता एलादि पन्थ के कर्ता गणिमेदवियार" ही हैं। ये दोनों मन्य उक्त मेधावी से रचे हुए अनमोल जवाहरात हैं। इनके काल, जन्मस्थान, पिता, माता आदि अज्ञात हैं।

आबार कोवै : यह मन्थ आचार की प्रधानता बको लेकर रचा गया उत्तम शासख है। इसमें गृहस्थों का आचार विस्तृत रूप में वर्णित है। पन्ध कर्ता का नाम भादि का पता नहीं चलता।

नानमणिक्कडियै: इसके प्रत्येक पद्म में चार चार नीतियाँ परी पड़ी हैं इस पन्य को नौति का भंडार कहें, तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी 1 इस मन्य के क्दा "विलंबिनायनसर हैं। ये संघकाल के कपिल से भिन्न है। इसका काल आदि का पता नहीं बलता।

“नियवे नार्पदु" : इस प्रन्य में कुल बालीस प् है। सांसारिक जीवों को कौन-कौनसी चीजें प्रिय लगती हैं, उनका इस रचनामें खुलासा है। वह ई.५ वीं सदी का प्रन्थ माना जाता है। इस पन्थ के कर्ता पूरतंचेदनार" हैं यह यन्ध व्यावहारिक विषयों को बतलाने के कारण जैन-अजैन सभी लोगों को प्रिय है ।

"इन्नानार्पदु" : इस ग्रन्थ में कुल चालीस पद्म हैं। संसार दुखों का कारण और उसका निवारण विस्तृत रूप में बतलाया गया हैं एक सौ चौसठ दुखों का वर्णन है। इसके रचयिता "कपिलदेवनायनार" हैं। ये संघकाल के कपिल से भिन्न हैं। 1.

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नीति ग्रंथ

पदिणेव कील कणक्कुनूल :- (अठारह गिनती वाले अन्य) जैन ग्रन्थ सारे के सारे नीति से भरे अद्भुत चिन्तामणि हैं। उन के अलावा अर्थात (ऊपर कहे गये नौति प्रन्थ के अलावा) जो नीतिमन्य हैं, उनका खुलासा नीचे दिया जा रहा है ।

अरुंगलचेषु:- यह श्रावकाचार प्रन्थ हैं दोहा सरीखा दो चरणों का है । स्वामी समन्तभद्राचार्य के रलकरण्डकश्रावकाचार का अनुवाद कहें, तो अत्युक्ति नहीं होगी तमिल भाषा-भाषियों को रत्नकरण्डकश्रावकाचार मन्थ पढ़ने की जरूरत नहीं है । इसीसे अपने आचार का परिज्ञान श्रावकों को अच्छी तरह हो जाता है । दोनों में कोई फर्क नहीं है। यह ग्रन्थ बारहवीं सदी का है। इस अद्भुत मनुष्य के रचयिता तभिल भावा के प्रख्यात विद्वान आचार्य शिरोमणी *अर्ंगलान्वयत्तारहैं। इस प्न्य के अध्ययन से आचार्य श्री की विद्वत्ता का परिचय मिल जाता है । ग्रन्य की भाषा सरल है । विषय उत्तम है । आयार्य ने इसमें श्रावकों के आचारों का वर्णन करने के साथ-साथ, नीतियों को भी जमा दिया है। इसमें कुल १०० पद्य हैं जैनत्व के रहस्य को बतलाने वाला यह अत्यद्धुत प्रन्य है।     इसकी कई व्याख्यायें हुई है। कई संस्करण निकल चुके हैं। कई हजार किताबें बिकी हैं। यह एक बड़ा ही लोकप्रिय ग्रन्थ है।

जीव संबोधन :- यह भी नीति का मैथ है। इसमें ५५० पद्य हैं। कथा के द्वारा नौति को बतलाने वाला यह एक महनीय पन्थ है। इसमें बारह अधिकार हैं । जैन सिद्धान्त के रहस्य को प्रकट करनेवाला महान ग्रन्थ है। इसके रचयिता देवेन्द्रमहामुनि है। इनकी जीवनी और काल के बारे में हम सभी अनभिज्ञ है ।

औवैअगतिलचूडि :- जैन नीतितत्वों को प्रतिपादन करने वाला यह एक श्रेष्ठ प्रन्थ है। औवै का नाम तमिलनाडु भर में प्रसिद्ध है । एक अर्जिका महिला थी, जिस का नाम औवै था । इनके कारण समस्त जैन समुदाय का गौरव है । अजैन लोग भी इनका आदर करते हैं। परन्तु ठनका सारा कथन जैनत्व के आश्रित है। 


                                 पुराण

पुराण, चरित्र, इतिहास सब एक हैं। पुराणों में तीर्थकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव और प्रतिवासुदेव इन त्रिषष्ठि शलाका पुरुषों की जीवनी है। इससे पुण्य- पाप का स्वरूप जाना जाता है। पुण्य से कैसी ऊँची पदवी मिलती है और सुख मिलता है तथा पाप से कैसा दारुण दुख भोगना पड़ता है? इत्यादि बातों को समझने का पुराण साक्षात दर्पण है। इसे प्रथमानुयोग शास्त्र भी कहते हैं। प्रारंभिक अवस्था में रहनेवाले श्रावक-श्राविकाओंके लिये अत्यन्त आवश्यक शास्त्र है। वास्तव में संसारी जीवों को इससे जो लाभ मिलता है, वह अन्यत्र नहीं है। कथारूप होने के कारण श्रावकों को इसे पढ़ने में दिल भी लग जाता है। इसका अध्ययन पुण्याश्रव का कारण है इससे पापाश्रव का निरोध होता है। तमिल भाषा-भाषियों के लाभार्थ तमिल में भी कई पुराण लिख गए हैं। ।

शिवपुराण :- यह मणिप्रवाल प्रन्थ है । मणिप्रवाल यानी तमिल और संस्कृत भाषा का संमिश्रण है । इसे महापुराण का संक्षिप्त सार कहें, तो अत्युक्ति नहीं होंगी इसमें वर्णन निकाल दिया गया है। बाकी सब ज्यों - का- त्यों है । इसमें त्रिषष्टि महापुरुषों (शलाका) की जीवनी विस्तार से वर्णित है । तमिलनाडु के जैनियों के घर में इसकी महिमा गाई जाती है। प्रत्येक श्रद्धालु श्रावक के घर में इसकी प्रति अवश्य रहेगी जो इसको पढ़ना नहीं जानते हैं, वे भी अपने घर में विराजमान कर, भक्तिभाव साथ इसकी पूजा करते हैं। इसके कई संस्करण निकल चुके हैं। इसका न तो काल ठीक तरह से मालूम है और न ग्रन्थ कर्ता का विवरण आदि ही इस तरह इस पन्थ का महत्व ज्यादा है । और जैन लोग इसकी महिमा गाते रहते हैं।

मेरु मंदर पुराण :- यह बहुत बड़ा पुराण मन्थ है। इस महान प्रन्थ में तेरह अध्याय है। १४०५ चौपाई-पद्य हैं। मेरु और मन्दर इन दो महापुरुषों के कई भवों की जीवनी व्यावर्णित है। ये दोनों महापुरुष बलदेव और वासुदेव थे। यह कथा बहुत रोचक है। इसमें नीतियां भरी हुई है जैनधर्म के नवपदार्थ के स्वरूप आदि रहस्यों से बोक-प्रोत है। सभी लोग इसे बड़े चाव से पढ़ते हैं जैन लोग इसे पूज्य पन्य मानकर अपने घर।  में विराजमान करते हैं। और पति के साथ स्वाध्याय करते-करते है। अन्य लोग भी बड़े चाव से पढ़ते हैं इसके रचयिता का नाम वामनाचार्य है। इनका अपर नाम मत्तियेणावार्य भी है। ये महान आचार्य प्राकृत, संस्कृत और तमिल इन तीनों भाषाओं में निपुण थे। इनको ठभयभाषा- कविचक्रवर्ती नाम की उपाधि भी बी इन्होंने का सैवान्तिक पन्यों की व्याख्या में भी लिखी हैं। इनके दिव्य चरण जिनकांची (काजीपुर) के मन्दिर में विराजमान है। अध्यात्मवेत्ता ये महान आचार्य वहीं रहकर आत्म साधना के साथ-साथ प्रन्य रचनायें भी करते रहे होंगे । इनका काल चौदहवीं सदी का माना जाता है । इस चन्य के कई संस्करण निकल चुके है तथा इबारों प्रतिबां निक गयी है। शो वती ने भी एक संस्करण निकाला था और अंग्रेजी तथा तमिल में विस्तृत भूमिकायें लिखी बीं । इस आचार्य के माता-पिता आदि का विवरण नहीं मिलता। मल्लिनाथ पुराण :- इस पंथ में भगवान मल्लिनाथ का जीवन-चरित्र वर्णित है।

यह पूर्ण रूप से नहीं मिलता । इसके दो-तीन पद्य श्रीषुराण के अन्दर उदाहरण के रूप में दिये गये हैं। इसीसे पता चलता है कि मल्लिनाषपुराण नाम का एक विशिष्ट मन्य वा परन्तु मतद्वेष के कारण अनुपम हजारों प्रन्थराज अग्नि में स्वाहा कर दिये गये और नदी में फेंक दिये गये। उनमें यह भी चला गया होगा मतद्वेव भ्यंकर अत्याचार करवाता है। मतद्वेष के कारण ही हजारों अनमोल अन्य रल हाथ से खोने पड़े। शान्तिनापुराण :- यह प्रन्थ भी पूर्ण रूप में नहीं मिलता "पुरत्तिरट्टु ' नामक वन्य

से इस का पता चलता है। इसके केवल ९ पद्य मिलते हैं। पन्य कर्ता का काल आदि का भी पता नहीं चलता।



                                   चरित्र

नास्दवरिते :- "पुरतिरट्ट् नामक प्रन्य से ही इसका भी पता चलता है कि "नारद चरितै नाम का अन्य लिखा गया था यह पूर्ण रूप से नहीं मिसता। उपर्युक्त बन्ध से यह भी मालूम पड़ता है कि इसमें नारद-पर्वत का वर्णन था इसके सिर्फ बाउं पद्य मिलते हैं। आठों महत्वपूर्ण है। यदि पूरा ग्रन्थ मिल जाता तो उस का महत्व अलग ही होता। काल और रवयिता आदि का पता नहीं है ।

पिंगत्वरित और वामनवरित :-इन ग्रन्थों के सिर्फ नाम ही मिलते हैं न कि मन्थ । "याप्पेरूमलं समक बैन व्याकरण उपलब्ध है । उसकी व्याख्या में उदाहरण देते समय उक्त दोनों ग्रन्यों के नाम लिखे गये हैं उनका पूर्ण विषय अज्ञात है।

नकली: तमिल भाषा में किसी वस्तु या जीव जंतु को प्रधान बना कर नो लिखे जाते हैं, उसे वित्तं याने "वृतान्त" कहते हैं । इस तरह बैनाचारयों ने कई प्रन्य रचे हैं। उनमें नरिविस्त भी एक है। यह प्रज्ञा जीवक चिन्तामणि के रचयिता तिरुतक्कदेवर द्वारा लिखा गया भेय सा उत्तम ग्रन्थ है। इसके कुछ पच ५२ हें। आचार्य ने इसमें संसार की असारता का व्यावर्णन करने के लिये दो सियारों की कथा लिखी है। १२ पद्य तक।  गीदडों की कथा है। आगे बतलाया गया है कि बाल्यावस्था, युवावस्था और वृद्धावस्था अनित्य हैं। धन सपत्ति भी नष्ट होने वाली है । शरीर नाशवान् है। इस तरह संसार की अमारता का सुन्दर वर्णन है । लोकोक्ति से तथा कथाओं के व्यापक वर्णन से जैनत्व की सच्चाई प्रकट होती है। इस प्रन्थ की रचना क्यों हुई ? यह लबी कथा है। उसे बताने लगे तो यन्थ बढ़ जाने का भय लगता है। इसका काल आदि जीवकचिन्तामणि में जो बताया गया है, वही समझना चाहिये क्योंकि जीवकचिन्तामणि की रचना के समय में ही इसकी रचना हुई थी।

कोंबिविश्त इतिहासज्ञों का विचार यह है कि कोंबिरिविरुत्त के कर्ता भी तिरुत्तक्कदेवर ही हैं । इस ग्रंथ के बारे में बाकी विषय मालूम नहीं पडता । बेल्लक्काल मुब्रमण्य मुदलियार द्वारा रचे गये अतिनवीन "कोब्रिविसुत्त" से यह बहुत प्राचीन है।

इसके अलावा याने तिरुत्तक्कदेवर के नरिविरुन से एक अलग नरिविरुत्त भी है । उमका महत्त्व नहीं है। अन्धकारमय तीसरी और चौथी शताब्दी के साहित्य काल मे इस की उत्पत्ति बतलाई जा सकती है । "वीरमोलिय" नामक व्याकरण ग्रन्थ पता चलता कि इसी जमाने मे "किलिविरुत्त" और "एलिविरुत्त" जैसे प्रन्थों की रचना हुई थी । किलि, एलि का अर्थ है- तोता, चूहा । ऐसे जीवों के नामों से ग्रन्थ रचना करना आचार्यो के चमत्कार का प्रदर्शन है ।

केशि-ग्रन्थ

तर्कशास्त्र के विषयों को बतलानेवाले ग्रन्थों को केशियन्थ के नाम से पुकारते हैं। अर्थात् सारे केशिग्रंथ तर्कशास्त्र के है । "नीलकेशी" जैन तर्कशास्त्र है। प्रो चक्रवर्ती ने इसे प्रकाशित किया है। अन्य प्रकाशन भी हैं स्व प्रो चक्रवर्ती के प्रकाशन में विशेषता यह है कि उसमे बहुत विस्तृत अग्रेजी भूमिका है । उक्त भूमिका में प्रो साहेब ने प्रन्थ के तथा आचार्य के अतरतम रहस्य का अच्छे ढग से प्रतिपादन किया है । जिससे प्रन्थ का और आचार्य का आशय आसानी से जाना है। आचार्य किस ढग से अभिप्राय प्रकट करते हैं ? इसे देखिये । तर्कशास्त्र के पारगत आचार्य ने "केशि" नामक एक देवी को आधार शिला बनाकर षण्मतों का खण्डन एव स्वमत मडन बड़ी गभीरता के साथ किया है। अत्यद्भुत पन्थ है यह । इसका काफी प्रचार है। अजैन मत के शैवसिद्धान्त समूह वालों ने भी इसे दूसरी बार प्रकाशित किया है। ऊपर लिखा जा चुका है कि केशि का अर्थ है तर्क, अत सभी केशि पन्थ तर्क-पन्थ हैं। जैसे पिगलेकेशि, अजनकेशि, कालकेशि आदि । नीलकेशि के सिवाय बाकी के प्रन्थ अप्राप्त है। काल और आचार्य के नाम आदि का भी पता नही चलता । शायद प्रशसा से दूर होने के कारण हो इन आचार्योंने अपने नाम आदि नहीं दिए हों ? इन त्यागियों की त्यागवृत्ति हमे सचमुच ही रोमांचित कर देती है।



                               अन्य साहित्य  


पेरुंगर्दै :- यह एक महान साहित्य प्रन्थ माना जाता है। इसके पद्य, चौपाई-पद्य के समान हैं। इस पंथ का नायक (कथानायक) उदयन राजा है। इस प्रन्थ के रचयिता “कोगुवेलिर" नाम के प्रसिद्ध जैनाचार्य हैं। कुछ लोग इस प्रज्ञा को दूसरी शताब्दी का बताते हैं, और कुछ लोगों का कहना यह है कि वह सातवीं सदी का होना चाहिये । इसका पहला भाग और अन्तिम भाग नही मिलता। काव्य, नय और उपमा-अलंकार आदि के कारण इस प्रन्थ का महत्त्व बहुत ऊँचा है। उदयन, माननीका और वासवदत्ता आदि पात्रों के कारण भी प्रन्थ का माहात्म्य बढ़ा है। कथा वास्तविक होने के कारण, काव्य तदनुरूप ओज गुण से भरपूर है।

जैनरामायण : जैन रामायण की कथा श्रीपुराणं में है। जैन रामायण के पद्य, उदाहरण के रूप में, कहीं-कहीं अन्य प्रन्थों में दिये गये हैं। इसीसे इस प्रन्थ का पता चलता है। हो सकता है मतद्वेष के कारण, इसे भी जला दिया गया हो अथवा उसे पानी में फेंक दिया गया हो। मिले हुए पद्यों से अच्छी तरह पता चलता है कि एक जमाने में यह रामायण पूर्ण रूप में था। इसके पद्य विरुत्त, अगवल से परिपूर्ण थे इसके रचयिता का नाम, काल आदि पता नहीं चलता। ग्रन्थ ही नहीं मिलता तब अन्य बातों के बारे में तो सोचना ही बेकार है। इस तरह बहुत से जैन ग्रन्थ जान बूझकर नष्ट कर दिये गये हैं उन मूढ़ लोगों को इसका महत्त्व क्या मालूम ?

इस ग्रन्थ के नाम से पता चलता है कि यह कोई अत्युत्तम ग्रन्थ अवश्य रहा होगा।       
  

                                  उला  ग्रंथ

उला का अर्थ है भक्ति । इसमें प्रातः काल गाये जाने वाले चौबीस तीर्थकरों की भक्ति के पद्य मिलते हैं।

आदिनाथ उला: यह श्री आदिनाथ भगवान के भक्ति रस से भरा हुआ अत्यद्भुत एवं सरस गन्थ है। इसमें भक्ति रस उमड़ पड़ा है । प्रातः काल में लोग इसे भक्ति से पढ़ते हैं तथा स्तोत्र के रूप में गाते हैं। पढने में/ गाने में मन आत्मविभोर हो जाता है ।

अप्पाण्डैनादर उला: इसे अनन्त विजय ने लिखा है। इसे सोलहवीं सदी का माना गया है। इसमें छसौ बीस पद्म हैं। तिरुनरूंगुण्टूं (यह एक गाँव का नाम है) के भगवान पार्श्वनाथ को अप्पाण्डैनादर कहते हैं। यह स्थान तमिलनाडु का एक अतिशय पावन क्षेत्र है। यहाँ महावीर जी के समान ही भक्त लोग अपनी मनौती मनाने जाते हैं। उक्त भगवान के नाम से बहुत से मंथ रचे गये हैं उनमें यह उला भी एक है। उला (भक्ति) गाथा भरी अद्भुत शैली की रचना है। उला प्रन्थों में यह सर्वश्रेष्ठ प्रन्य माना जाता है।

अरहन्त भगवान के भक्ति भरे पद् : यह आधुनिक मान्य है । पोत्रुरंगं के द्वारा लिखा हुआ है। इस में कुल सोलह पद्य हैं। सभी गाने लायक हैं वे सभी भक्ति से भरे हुए हैं।

अरहन देव के सिन्धु : के गाने (भजन) है। इसमें सिर्फ पचास पद्य मिलते हैं जो अष्पाण्डैनादर (भगवान पार्श्वनाथ) के ऊपर गाये गये हैं सभी महत्त्वपूर्ण हैं । इसमें माधुर्य गुण है। श्रोताओं को तन्मय करने की उनमें चमत्कारपूर्ण शक्ति है।

पावैपाटु : (भक्ति के गाने अर्थात भजन) यह अन्य आठवीं शताब्दी का है। अविनयनार" नामक कवि ने इसे रचा है। कलि नामक पद्यों में रचा गया है। यह कारिकै और कलम आदि व्याख्याओं में (उदाहरण के रूप में ) प्रस्तुत है । इन पद्यों को देखने से उक्त प्रन्थ के महत्त्व का पता चलता है।

तिस्वैपावै : अविरोधि नायर नामक आचार्य ने इसे रचा है । इसमें बीस पद्य हैं। एवावाय" इस वचन से पद्य के अंतिम चरण की पूर्ति होती है । मयिले नाथर (मद्रास के मैलापुर नेमिनाथ भगवान के ऊपर) इसे गाया गया है।

तिरूपुगल : प्रस्तुत प्रन्थ में प्राचीन जैन स्थलों के मार गाये गये भक्ति-गीत हैं इसके कर्ता देवराज मुनिराज है। इस प्रश्न का अपर नाम "जिनेन्द्रतिरुपुगल है । चन्दस आदि के कारण यह एक उत्तम श्रेणी का प्रन्य माना बाता है।

पाईनाथर अम्मान : तेईसवें तीर्थकर भगवान पार्श्वनाथ के पूर्वभव का याने कमठ-मरुभूति के भव से लेकर आगे का इसमें वर्णन है । आगे चलकर वे ही मरुभूतिपार्श्वनाथ तीर्थंकर बने और तप के द्वारा कर्म विजेता हुए तथा मोक्ष के नायक बनकर सिद्धालय पर विराजमान हुए। सोभनभालै : यह ग्रंथ तंजाऊन सरस्वति-भण्डार से प्रकाशित है इसे एक उत्तम कोटी का ग्रंथ माना जाता है।

तिरुनाथर कुण्ट्रत्तु पदिकम् : दीपडु, डी पत्तु आदि कई प्रबन्ध प्रन्थ भी लिखे गए   है ।


                                    कोश


चूड़ामणि निगण्डु : कोश को तमिल भाषा में "निगण्डु" कहते हैं। यह चूडामणि- निगण्डु "मण्डलपुरूडर" के द्वारा रचा गया है। उक्त ग्रन्थ कर्ता का जन्मस्थान तोण्डैमण्डल “पेरमण्डूर है। यह प्रन्थराज कोशों में सर्वश्रेष्ठ होने के कारण इसका नाम चूडामणि (चूडामणि-मणियों में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है) रखा गया है । इसमें कुल बारह अध्याय हैं। इसमें कुल ११९७- वृत्त याने पद्य हैं। इसमें ग्यारह हजार वचनों का संग्रह है । इसका काल सोलहवीं सदी माना जाता है। तमिल भाषा का यह अत्युत्तम कोश है।

दिवाकर : दिवाकर का अर्थ है सूर्य । यह सबसे पहला कोश ग्रन्थ माना जाता है । इसे आदि-कोश भी कहा जाता है । इस प्रन्थ के कर्ता का नाम "सेन्दन" है और इसका काल ९ वीं शताब्दी का है। इसमें कुल बारह अध्याय हैं जिनमें ११६८० वचनों का अर्थ है। इस पंथ का महत्त्व विद्वानों की दृष्टि से अवर्णनीय है।

पिंगलन्दै : यह भी एक कोश पन्थ है । "पिगल" नामक मुनिवर के द्वारा यह रचित है। "पिंगलर" का अर्थ है- सोने के समान शरीर वाला । प्रतीत होता है कि ये महाशय दैदीप्यमान काया वाले रहे होंगे। इसका काल दसवीं शताब्दी का है । इसमें दस अध्याय हैं। तथा कुल मिलाकर ४१८१ पद्य और १५७९१ वचन हैं इन सब के अर्थ इसमें बतलाये गये हैं।

उरिच्चोल : यह प्रन्थ "गांगय" नामक आचार्य द्वारा रचा गया है । इसमें "वेण्बा याने चौपाई पद्य हैं। इसका समय बारहवी सदी का हो सकता है। इसमें २८७ पद्य हैं। बारह अध्याय हैं और ३२०० वचन हैं ।



                          ज्योतिष

जिनेन्द्रपालै : जिनेन्द्रमाले प्रन्थ के कर्ता, काल आदि का पता नहीं चलता । परन्तु यह मन्थ प्राप्त है। इसके अलावा "उल्लमुडैयान" "ज्योतिड नीति" आदि बहुत से ज्योतिष प्रन्थ जैनाचार्यों द्वारा विरचित हैं। जिनेन्द्रमाले के सिवाय बाकी अप्राप्य हैं।

गणित

केट्टिएण्चुवडि, कणक्कधिकारं, नेल्लिलक्क वायपाडु, सिरुकुलिवायपाडु, कीलवाय इलक्कं, पेरुक्कलवायपाडु, आदि गणित ग्रन्थ जैनाचार्यों के ही हैं।  

मन्त्र शास्त्र

स्वरोगमन्त्र : स्वरोग नाम का एक मन्त्र प्रन्थ है। यह अप्रकाशित है। "पुष्पकरनार" नामक एक अन्य मन्त्र प्रन्थ भी है।


                               संगीत शास्त्र

पेरुंगुरूणू, पेरुनारै, सैयिट्रियं, भरतसेनापतियं, जयन्तं आदि सुन्दर संगीत पन्थ भी उपलब्ध हैं।

वान शास्त्र

जैनाचार्य द्वारा रचा गया एक वान-शास्त्र भी है। उसका नाम ठीक तरह से पता नहीं चल रहा है।

गद्य ग्रन्थ

श्रीपुराण : यह मणिप्रवाल (गद्य-पद्य मिश्रित) पद्धति से लिखा गया है। पुराण का विवरण देते समय, इसके बारे में कहा गया है । इसके अलावा महापुराण, उत्तर पुराण, रामायण, महाभारत, गद्यचिन्तामणि आदि ग्रंथ के रूप में तमिल में थे परन्तु वर्तमान में ये सारे प्रन्थ अप्राप्य हैं।

पदार्थसार : यह पन्थ भी मणिप्रवाल रूप में है । इसमें द्रव्यानुयोग के विषय अच्छे ढंग से संग्रहीत हैं । जैसे समयसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, गोमटसार, लब्धिसार, अष्टपाहुड आदि तात्विक ग्रन्थों में जो-जो विषय पाये जाते हैं, वे सब इसमें अच्छे और समझने लायक रूप में बताये गये हैं। इसको समझना साधारण लोगों के लिये जरा कठिन है। तजार सरस्वती महालवालोने इसे छाप दिया है। इसका कर्ता काल आदि ठीक मालूम नही पड़ता।

इससे तमिल भाषा के अन्दर जैनाचार्यों की अनमोल कृतियों का परिज्ञान तो पाठकों को थोड़ा-बहुत हुआ ही होगा। जैनाचार्यों का विशिष्ट ज्ञान सभी पहलुओं में था किसी भी विषय को छोड़ दिया हो अथवा जानकारी न हो ऐसा नही कहा जा सकता। उन लोगों का कार्यक्रम यह रहा करता था कि नगर में आकर आहार ग्रहण करना और गुफा में जाकर ग्रन्थ रचना, स्वाध्याय, आत्मध्यान, जप-तप आदि धर्मध्यान के कार्यों में समय लगाना । इसके सिवाय दूसरा काम बिलकुल था ही नही । फिर पन्थों की सृष्टि में कमी क्यों रहेगी? वे स्वतः अद्वितीय एवं अनुपम विद्वान तो ये ही फिर उन महात्मा ओं की रचनायें अमूल्य एवं अनुपम नही रहेंगी तो और किसकी रहेंगी? ज्ञान की गरिमा, वैराग्यभाव, तन्मयता, भविष्योज्ज्वल की दृष्टि का सदुपयोग, धार्मिक भावना आदि भरपूर होने के कारण, वे आचार्य महान सन्त अपनी अनमोल कृतियों को देश और धार्मिक जनोदधार के निमित्त छोड़ गये हैं। उनकी उदार गरिमा का वर्णन करना हमारी शक्ति से बाहर है।



                             टीकाकार

इलंपूरणर : जैन व्याख्या कर्ताओं में सबसे पहला नम्बर (नाम) "इलंपूरणर" का है। "तोलकार्यं नामक प्राचीन महान व्याकरण की व्याख्या इन्हीं की है। इनकी व्याख्या नहीं होती तो तोलकार्यं का आशय समझना असंभव हो जाता। बाकी व्याख्यायें इनकी व्याख्या को देखकर पीछे रची गई हैं इलंपूरणर ने अपनी व्याख्या में करीब ४० गन्थों से उद्धरण प्रस्तुत कर उनके सटीक उदाहरण दिये हैं। अद्भुत व्याख्या की है। इनकी विद्वत्ता के बारे में कहना शक्ति के बाहर है ।

अडियार्कुनल्लार : ये महाशय शिलप्पधिकारं नामक महाकाव्य के व्याख्याता हैं। वे तेरहवीं सदी के हैं। पोप्पण्ण कांगेय नामक कनड नरेश इनका परम भक्त था इनका आदर सत्कार खूब करता था। इन्होंने अपनी व्याख्या में करीब ६० प्रन्थों से उद्धरण लेकर उदाहरण दिये हैं। ये महाशय तमिल भाषा के सागर थे। इनकी व्याख्या नहीं होती तो सिलप्पधिकार में आया हुआ सगीत का विषय समझना असंभव हो जाता। इन्होंने संगीत के बारे में काफी खुलासा किया है । इनकी व्याख्या से पता चलता है कि ये संगीत के भी प्रकाण्ड पण्डित थे।

नच्चिनार्किनियर : ये महाविद्वान् दक्षिण मथुरा के निवासी थे लोगों का कहना

यह है कि ये महाशय पहले शैव थे । बाद में जैन बने । प्राचीन जमाने में धर्म परिवर्तन होना स्वाभाविक था। पुरातन व्याकरण तोलकाप्यं और तमिल भाषा में प्रसिद्ध पंच महाकाव्य आदि महान प्रन्थों के ये व्याख्याता थे । इनका काल चौदहवीं सदी का माना जाता है। ये तमिल भाषा के महान विद्वान थे। उस जमाने के विद्वानों में इनको सर्वश्रेष्ठ विद्वान माना जाता था।

मयिलैनाथर : ये नत्रूल नामक सर्वश्रेष्ठ तमिल व्याकरण के व्याख्याता थे इनकी व्याख्या अत्युत्तम मानी जाती है। इनका काल चौदहवीं सदी का माना गया है।

गुणसागर : ये तमिल भाषा के सुप्रसिद्ध व्याकरण यापेरुंगल और याप्पेरूंगलक्कारिकै इन दोनों के व्याख्याता थे। व्याकरण शास्त्र में इनकी गहरी पैठ थी। इनकी चरणपादुका बिनकांचीमठ चित्तामूर के पास विळ्ळुक्कं गाँव में है इनके दिव्य चरणों की पूजा हर साल युगादि के दिनों में हुआ करती है। उस समय उसमें काफी लोग शामिल होते हैं।

कालिंगर : ये महाशय तिरुक्कुरल महाकाव्य के व्याख्याता थे। इनकी व्याख्या उत्तम मानी जाती है। तिरुक्कुरल की कई व्याख्यायें की गई है उनमें इसका महत्व है ज्यादा ।इन का समय मालूम नहीं हो सका।

वामनमुनिवर : नीलकेशी नामक जो तर्कशास्त्र है, उसके ये जगतप्रसिद्ध व्याख्याता थे। इनकी व्याख्या के कारण ही मन्चकार का आशय और महत्त्व जाना जाता है। तमिल भाषा के अन्दर मेरुमन्दर पुराण' नाम का एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है, जिसका हिन्दी अनुवाद आचार्य देशभूषण महाराज द्वारा होकर प्रकाशित किया गया है । उत्त मेर्मन्दर पुराण के रचयिता का नाम वामन मुनिवर है। परन्तु ये दोनों एक ही हैं या अलग हैं, इसका पता नही चलता। इनकी व्याख्या से पता चलता है कि इनको तर्कशास्त् में अच्छी जानकारी एवं निपुणता थी।

पदुमनार : तमिल भाषा का सर्वश्रेष्ठ, जो नीति प्रन्थ "नालडियार" है, उसके ये सुप्रसिद्ध व्याख्याता थे। इनकी व्याख्या की शैली सराइनीय एवं लोकप्रिय है । उक्त लोगों के अलावा और भी बहुत से व्याख्याता हुए हैं उन सबके बारे में लिखें तो बहुत बड़ा पन्थ हो जायेगा। इसी डर के कारण यहाँ विराम लेता हूँ। परन्तु समझने की बात यह है कि तमिल भाषारूपी जगन्माता जो सरस्वती है उसके सर्वांगों को जैन महाकवि मुनिवरों ने अपने प्रन्थ रूपी आभूषणों से सालंकृत किया है। इस कारण से वह देवी जिनवाणी सर्वांग सुन्दरी होकर जाज्वल्यमान दिखाई दे रही है।

तमिल भाषा के निष्पक्षपाती सारे विद्वानों का कहना यह है कि यदि तमिल भाषा में जैन महाविद्वान मुनिराजों की कृतियाँ न होती तो तमिल भाषा निर्जीव हो जाती। इन त्यागी मुनि सन्तों के बारे में जितनी भी प्रशंसा की जाय थोड़ी है। वे प्रशंसा के पक्षपाती नहीं थे। बल्कि वे सर्वथा अनिच्छुक थे। इसी कारण इनके कई प्रन्थों में नाम, काल आदि का पता नहीं चलता । इन महात्माओं की एक मात्र दृष्टि यही रहा करती थी कि सारे जन समुदाय के उद्धार एवं हित हेतु धार्मिक और नीति से ओत-प्रोत मन्थों की रचना होती जाये और जिनवाणी का प्रचार बराबर चलता रहे।



                               व्याकरण ग्रन्थ

आजकल जितने भी व्याकरण मिलते हैं, उनमें जैनों के व्याकरण ही ज्यादा हैं। अन्य लोगों के व्याकरण नहीं के बराबर है। व्याकरण का इतिहास उनसे समृद्ध बना है। तमिल भाषा के आदि व्याकरण के रूप में माने गये "पेरगत्तियं", *तोलकाप्पियं" आदि जैन व्याकरण ही हैं। तोलकाप्पियं के बारे में पूर्व में विवरण दिया ही गया है बाकी के बारे में विचार करेंगे।

नकुल : यह अक्षर और वचनों को बतलानेवाला अत्युत्तम प्रसिद्ध व्याकरण है एक जमाने में इसके विषय में पाँच व्याकरण पमन्थ थे यह नत्नूल तोलकार्यं की परंपरा का है। इसके रचयिता का नाम “भवणन्दी" है । ये महामुनि थे। ये तमिल भाषाके अद्वितीय वैय्याकरणी थे। इनका काल तेरहवीं सदी का माना जाता है। इस ग्रन्थ की व्याख्या अनेक लोगों ने लिखी है। आजकल यही व्याकरण सबसे अधिक प्रामाणिक माना जाता है। इसके बराबर और कोई व्याकरण नहीं है । इसका जैन और अजैन सभी लोग आदर के साथ उपयोग करते हैं। तमिल भाषा वाले सारे लोग इसके जानकार हैं । बच्चों से लेकर बड़े तक इसका अध्ययन करते हैं।

याप्पेरुंगलं : यह व्याकरण प्रन्थ दीपरगुंडी के निवासी अमृदसागर नाम के मुनिवर द्वारा रचा गया है । यह दसवीं सदी का है । इसमें यापु ( पद्य रचना) के बारे में बतलाया गया है। यह सूत्र के रूप में रचा गया है। व्याकरण ग्रन्थों में इसका महत्त्व ज्यादा है

याप्पेरुंगलक्कारिगै : इस व्याकरण के अन्दर याप्पु (छन्द) के बारे में विशेष रूप से बतलाया गया है। यह प्रन्थ ४४-कट्टलै कलित्तुरै नाम के पद्यों में रचा गया है। यह भी "अमृदसागर" मुनिमहाराज की अद्भुत कृति है। इसका काल दसवीं सदी का है इसके आगे-पीछे के जितने भी व्याकरण हैं, उन सब को जीतकर यह काल-प्रवाह में निश्चल मेरु के समान खड़ा है। इस पन्थ के ऊपर लिखी हुई गुणसागर मुनि महाराज की व्याख्या सर्व श्रेष्ठ मानी जाती है।

अमुदसागर : अमुदसागरं आचार्य ने अपने नाम (अमुदसागर) से ही इस महत्वपूर्ण पन्थ की रचना की है। इस महान आचार्य का समाधिस्थान (चित्तामूर- जिनंकाचिमठ) के पास विळ्ळुक्कं में है हर साल चैत्र शुक्ल प्रतिपदा का दिन युगादि करके जाना जाता है। युगादि के समय में इनके चरणों की पूजा की जाती है। हजारों लोग शामिल होकर शोभा बढ़ाने के साथ-साथ पुण्य लाभ प्राप्त करते हैं। यह प्रन्थ भी दसवीं सदी का है। इसके कुछ ही पद्य मिलते हैं। पूरे नहीं मिलते ।

नंबियगप्पोरूल : "नंबी" नामक मुनिवर इसके रचयिता हैं । इसके कर्ता तोण्डेनाडु (तंजारूर) के रहने वाले थे अगप्पोरूल (आत्मिक विषय) नामक विषयों को लेकर उनका पाँच अध्यायों में विवेचन किया गया है। प्रस्तुत ग्रंथ पढ़ने एवं मनन करने लायक है।

नेमिनाथ : इस व्याकरण ग्रन्थ के कर्ता का नाम गुणवीर पण्डित है बाईसवें तीर्थकर नेमिनाथ भगवान के नाम पर लिखा गया यह अत्यन्त सुन्दर प्रन्थ है। (इसी कारण प्रन्थ- रचयिता का नाम भी वही पड़ गया।) कांजीपुरं के समीपवर्ती कलत्तूर इन का जन्मस्थान माना जाता है। यह प्रन्थ तेरहवीं सदी का माना गया है। यह अक्षर और वचन के भेदों को बताता है। इसमें नौ हिस्से (भाग) हैं ९६- सूत्र हैं। चौपाई-रवना की विधि को बतलानेवाला यह एक सुन्दर ग्रन्थ हैं।

अविनय : यह अविनय नाम के आचार्य से रचा गया नूतन मन्य है। इस महान व्याकरण का कर्ता अगस्तियर का छात्र बतलाया जाता है। अगस्तियर आदि- व्याकरण के कर्ता थे। उन्हें इन्द्रादि संस्कृत व्याकरण का पूर्ववर्ती माना जाता है। अगवल, वेष्या आदि पद्यों से इसका निर्माण हुआ है इसमें अक्षर, वचन, पद्य-रबना यापु आदि विषयों पर प्रकाश डाला गया है। इसकी व्याख्या "रसजपवित्रपल्लव नरैयार" ने लिखी है। कुछ लोग इसे पाँचवीं सदी का मानते हैं और कुछ लोगों का कहना यह है कि यह प्रन्थ तोलकापियं के जमाने का है । इसके नब्बे से ज्यादा पद्य मिलते हैं।




इस  प्रकार  यह जैन  शासन के  अद्भुत। ग्रंथ  और  उनके महान आचार्य एवं कवि है ।


सर्वज्ञ शासन जय वंत वर्ते 
निर्ग्रन्थ शासन जयवंत वर्ते












              



👑👑जैन धर्म की प्राचीनता का इतिहास👑👑 भाग 1

                                                                          ।  सिद्ध परमेष्ठि भगवंतो की जय हो ।   ...